(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें कल्याण, मुक्ति, तत्त्वज्ञान,
परमात्मप्राप्ति गुरुके अधीन नहीं है । अगर बिना गुरु बनाये तत्त्वज्ञान नहीं होता तो सृष्टिमें जो
सबसे पहला गुरु रहा होगा, उसको तत्त्वज्ञान कैसे हुआ होगा ? अगर बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये उसको तत्त्वज्ञान
हो गया तो इससे सिद्ध हुआ कि बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये भी जगद्गुरु भगवान्की
कृपासे तत्त्वज्ञान हो सकता है । परन्तु आजकल तो ऐसी
प्रथा चल रही है कि पहले चेला बनो, गुरुमन्त्र लो, पीछे उपदेश देंगे । ऐसी दशामें
गुरु बनानेपर चेलेकी बड़ी दुर्दशा होती है । भाव बैठता नहीं, लाभ दीखता
नहीं, भीतरका भ्रम भी मिटता नहीं और छोड़कर दूसरी जगह जा सकते नहीं । मेरेसे कोई सम्मति ले तो मैं कहूँगा कि सत्संग करो और जितना ले
सको, उतना लाभ लो, पर किसीको गुरु मत बनाओ । जहाँ-जहाँसे अच्छी बातें मिलें,
वहाँ-वहाँसे उनको लेते रहो और जहाँ अच्छी बात न मिले, वहाँसे चल दो । गुरु बनाकर
बँधो मत ।
मधुलुब्धो यथा भृङ्गः पुष्पात् पुष्पन्तरं व्रजेत् ।
ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो
गुरोर्गुर्वन्तरं व्रजेत् ॥
(गुरुगीता)
‘मधुका
लोभी भ्रमर जैसे एक पुष्पसे दूसरे पुष्पकी ओर जाता है, ऐसे ही ज्ञानका लोभी शिष्य एक गुरुसे दूसरे गुरुकी ओर जाय ।’
गुरु बनानेके बाद आगे जाकर न जाने क्या
दशा होगी ! मेरेसे ऐसे कई आदमी मिले हैं, जिन्होंने अपनी दृष्टिसे अच्छे-से-अच्छे
गुरु बनाये, पर पीछे उनपर अश्रद्धा हो गयी । अतः जो अपना
कल्याण चाहता है, उसको किसीसे भी सम्बन्ध
नहीं जोड़ना चाहिये । संसारसे सम्बन्ध जोड़नेवाला अपना ही कल्याण नहीं कर सकता, फिर
दूसरेका कल्याण कैसे करेगा ?
आजकल असली गुरु मिलना बहुत कठिन है । जो
ठीक तत्त्वको जाननेवाला हो, ऐसा देखनेमें नहीं आता । जो स्वयं तत्वको नहीं जानता, वह शिष्यको क्या बतायेगा ? ठीक
तत्त्वको जाननेवाले गुरु पहले भी बहुत कम हुए हैं । पहले हो चुके सन्तोंकी
पुस्तकें पढ़ते हैं तो उनसे भी हमें पूरा सन्तोष नहीं होता । सबसे बढ़कर सन्त वे होते हैं, जिनमें मतभेद नहीं होता अर्थात्
द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि किसी एक मतका आग्रह नहीं होता । इसलिये साधकके
लिए सबसे बढ़िया बात यही है कि वह सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाय । किसी व्यक्तिको
न पकड़कर परमात्माको पकड़े । व्यक्तिमें पूर्णता नहीं होती । पूर्णता परमात्मामें
होती है । हम
सच्चे हृदयसे परमात्माके सम्मुख हो जायँ तो वे योग, ज्ञान, भक्ति ‒सब कुछ दे देते
हैं ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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