।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.-२०७४,बुधवार
              महालायारम्भ, प्रतिपदा-श्राद्ध
                   गुरुकी महिमा



         वास्तवमें गुरुकी महिमाका पूरा वर्णन कोई कर सकता ही नहीं । गुरुकी महिमा भगवान्‌से भी अधिक है । इसलिये शास्त्रमें गुरुकी बहुत महिमा आयी है । परन्तु वह महिमा सच्चाईकी है, दम्भ-पाखण्डकी नहीं । आजकल दम्भ-पाखण्ड बहुत हो गया है और बढ़ता ही जा रहा है । कौन अच्छा है और कौन बुरा है इसका जल्दी पता लगता नहीं । जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना सुगम होता है । परन्तु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है । सीताजीके सामने रावण, राजा प्रतापभानुके सामने कपट मुनि और हनुमान्‌जीके सामे कालनेमि आये तो वे उनको पहचान नहीं सके, उनके फेरेमें आ गये; क्योंकि उनका स्वांग साधुओंका था । आजकल भी शिष्योंकी  अपने गुरुके प्रति जैसी श्रद्धा देखनेमें आती है, वैसा गुरु स्वयं होता नहीं । इसलिये सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहते थे कि आजकलके गुरुओंमें हमारी श्रद्धा नहीं होती है, प्रत्युत उनके चेलोंमें श्रद्धा होती है । कारण कि चेलोंमें अपने गुरुके प्रति जो श्रद्धा है, वह आदरणीय है ।

         शास्त्रोंमें आयी गुरु-महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमानमें प्रचारके योग्य नहीं है । कारण कि आजकल दम्भी–पाखण्डी लोग गुरु महिमाके सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते है । इसमें कलियुग भी सहायक है; क्योंकि कलियुग अधर्मका मित्र है-‘कलिनाधर्ममित्रेण’(पद्मपुराण, उत्तर १९३।३१) । वास्तवमें गुरु महिमा प्रचार करनेके लिये नहीं है प्रत्युत धारण करनेके लिये है । कोई गुरु खुद ही गुरु-महिमाकी बातें करता है, गुरु-महिमाकी पुस्तकोंका प्रचार करता है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मनमें गुरु बननेकी इच्छा है । जिसके भीतर गुरु बननेकी इच्छा होती है, उससे दूसरोंका भला   नहीं हो सकता । इसलियेमें गुरुका निषेध नहीं करता हूँ, प्रत्युत पाखण्डका निषेध करता हूँ । गुरुका निषेध कोई कर सकता ही नहीं ।

         गुरुकी महिमा वास्तवमें शिष्यकी दृष्टिसे है, गुरुकी दृष्टि से नहीं । एक गुरुकी दृष्टि होती है, एक शिष्यकी दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमीकी दृष्टि होती है । गुरुकी दृष्टि यह होती है कि मैंने कुछ नहीं किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्त्व है, उसकी तरफ शिष्यकी दृष्टि करा दी । तात्पर्य हुआ कि मैंने उसीके स्वरूपका उसीको बोध कराया है, अपने पाससे उसको कुछ दिया ही नहीं । चेलेकी दृष्टि यह होती है कि गुरुने मेरेको सब कुछ दे दिया है । जो कुछ हुआ है वह सब गुरुकी कृपासे ही हुआ है । तीसरे आदमीकी दृष्टि यह होती है कि शिष्यकी श्रद्धासे ही उसको तत्त्वबोध हुआ है ।

         असली महिमा उस गुरुकी है, जिसने गोविन्दसे मिला दिया है । जो गोविन्दसे तो मिलाता नहीं, कोरी बातें ही करता है, वह गुरु नहीं होता है । ऐसे गुरुकी महिमा नकली और केवल दूसरोंको ठगनेके लिये होती है !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे