गुरु-कृपा अथवा सन्त-कृपाका बहुत विशेष महात्म्य है ।
भगवान्की कृपासे जीवको मानवशरीर मिलता है और गुरु-कृपासे भगवान् मिलते हैं । लोग समझते हैं कि हम गुरु बनायेंगे, तब वे कृपा करेंगे ।
परन्तु यह कोई महत्त्वकी बात नहीं है । अपने-अपने बालकोंका सब पालन करते हैं ।
कुतिया भी अपने बच्चोंका पालन करती है । परन्तु सन्त-कृपा बहुत विलक्षण होती है !
दूसरा शिष्य बने या न बने, उनसे प्रेम करे या वैर करेᅳइसको सन्त नहीं देखते ।
दीन-दुःखीको देखकर सन्तका हृदय द्रवित हो जाता है तो इससे उसका काम हो जाता है ।[*] जगाई-मधाई
प्रसिद्ध पापी थे और साधुओंसे वैर रखते थे, पर चैतन्य महाप्रभुने उनपर भी दया करके
उनका उद्धार कर दिया ।
सन्त सबपर कृपा करते हैं,
पर परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु ही उस कृपाको ग्रहण करता है; जैसे-प्यासा आदमी ही जलको ग्रहण करता
है । वास्तवमें अपने उद्धारकी लगन जितनी तेज होती है,
सत्य तत्त्वकी जिज्ञासा जितनी अधिक होती है, उतना ही वह उस कृपाको अधिक ग्रहण करता
है । सच्चे जिज्ञासुपर सन्त-कृपा अथवा गुरु-कृपा अपने-आप होती है । गुरु-कृपा
होनेपर फिर कुछ बाकी नहीं रहता । परन्तु ऐसे गुरु बहुत दुर्लभ होते हैं !
पारससे लोहा सोना बन जाता है, पर उस सोनेमें यह ताकत नहीं होती कि दूसरे
लोहेको भी सोना बना दे । परन्तु असली गुरु मिल जाय तो उसकी कृपासे चेला भी गुरु बन
जाता है, महात्मा बन जाता है‒
पारस में अरु संत में, बहुत अंतरौ
जान ।
वह लोहा कंचन करे, वह करई आपु समान ॥
यह गुरुकृपाकी ही विलक्षणता है ! यह गुरुकृपा चार प्रकारसे होती हैᅳस्मरणसे, दृष्टीसे,
शब्दसे और स्पर्शसे । जैसे कछवी रेतके भीतर अण्डा देती है, पर खुद पानीके भीतर रहती हुई उस अण्डेको
याद करती रहती है तो उसके स्मरणसे अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरुके याद
करनेमात्रसे शिष्यको ज्ञान हो जाता हैᅳयह ‘स्मरण-दीक्षा’ है । जैसे मछली जलमें अपने अण्डेको
थोड़ी-थोड़ी देरमें देखती रहती है तो देखनेमात्रसे अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरुकी
कृपादृष्टिसे शिष्यको ज्ञान हो जाता हैᅳयह ‘दृष्टी-दीक्षा’
है । जैसे कुररी पृथ्वीपर अण्डा देती है और आकाशमें शब्द करती हुई घूमती रहती है
तो उसके शब्दसे अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरु अपने शब्दोंसे शिष्यको ज्ञान करा
देता हैᅳयह ‘शब्द-दीक्षा’ है । जैसे मयूरी अपने अण्डेपर बैठी
रहती है तो उसके स्पर्शसे अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरुके हाथके स्पर्शसे शिष्यको
ज्ञान हो जाता हैᅳयह ‘स्पर्श-दीक्षा’ है ।
ईश्वरकी कृपासे मानवशरीर मिलता है, जिसको पाकर जीव स्वर्ग अथवा नरकमें भी जा
सकता है तथा मुक्त भी हो सकता है । परन्तु गुरुकृपा या सन्तकृपासे मनुष्यको स्वर्ग
अथवा नरक नहीं मिलते, केवल मुक्ति ही मिलती है । गुरु
बनानेसे ही गुरुकृपा होती हैᅳऐसा नहीं है । बनावटी गुरुसे कल्याण नहीं
होता । जो अच्छे सन्त-महात्मा होते हैं, वे चेला बनानेसे ही कृपा करते होंᅳऐसी बात नहीं है । वे स्वतः और स्वाभाविक कृपा करते हैं । सूर्यको कोई इष्ट मानेगा, तभी प्रकाश करेगाᅳयह बात नहीं है । सूर्य तो स्वतः और
स्वाभाविक प्रकाश करता है, उस प्रकाशको चाहे कोई काममें ले ले । ऐसे ही गुरुकी, सन्त-महात्माकी कृपा स्वतः-स्वाभाविक होती है । जो
उनके सम्मुख नहीं होता, वह लाभ नहीं लेता । जैसे, वर्षा बरसती है तो उसके
सामने पात्र रखनेसे वह जलसे भर जाता है । परन्तु पात्र उलटा रख दें तो वह जलसे
नहीं भरता और सूखा रह जाता है । सन्तकृपाको ग्रहण
करनेवाला पात्र जैसा होता है, वैसा ही उसको लाभ होता है ।
सतगुरु भूठा इन्द्र सम, कमी न राखी कोय ।
वैसा ही फल निपजै, जैसी भूमिका होय ॥
वर्षा सबपर समान रूपसे होती है, पर बीज जैसा होता है, वैसा
ही फल पैदा होता है । इसी तरह भगवान्की और
सन्त-महात्माओंकी कृपा सबपर सदा समान रूपसे रहती है । जो जैसा चाहे, लाभ उठा सकता
है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे
[*] एक कृपा होती है और एक दया होती है । दयामें कोमलता होती
है, पर कृपामें थोड़ा शासन होता है । दयामें शासन नहीं होता, केवल हृदय द्रवित हो
जाता है । हृदय द्रवित होनेसे शिष्यका काम हो जाता है ।
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