।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७४,शुक्रवार
                       तृतीया-श्राद्ध
            गुरुके वचनका महत्त्व 



     गुरु बनानेसे कल्याण नहीं होता, प्रत्युत गुरुकी बात माननेसे कल्याण होता है; क्योंकि गुरु शब्द होता है, शरीर नहीं‒

जो तू चेला देह को,       देह खेह की खान ।
जो तू चेला सबद को, सबद ब्रह्म कर मान ॥

         गुरु शरीर नहीं होता और शरीर गुरु नहीं होता‒ ‘न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत’ (श्रीमद्भा११/१७/२७) । इसलिये गुरु कभी मरता नहीं । अगर गुरु मर जाय तो चेलेका कल्याण कैसे होगा ? शरीरको तो अधम कह गया है‒

छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
                                            (मानस, किष्किन्धाकाण्ड ११/२)

         अगर किसीका हाड़-मांसमय शरीर गुरु होता है, तो वह अधम होता है, कालनेमि होता है । इसलिये गुरुमें शरीर-बुद्धि करना और शरीरमें गुरु-बुद्धि करना अपराध है । सन्त एकनाथजीके चरित्रमें यह बात बहुत विशेषतासे मिलती है । शास्त्रकी प्रक्रियाके अनुसार पहले तीर्थयात्रा की जाती है, फिर उपासना की जाती है और फिर ज्ञान होता है । परन्तु एकनाथजीके जीवनमें उलटा क्रम मिलता है । उनको पहले ज्ञान हुआ, फिर उन्होंने उपासना की और फिर गुरुजीने तीर्थयात्राकी आज्ञा दी । जब वे तीर्थयात्रामें थे, तब उनके गाँव पैठणका एक ब्राह्मण उनके गुरुजीके पास देवगढ़ पहुँचा और बोला कि ‘महाराज ! आपके यहाँ जो एकनाथ था, उनके दादा-दादी बहुत बूढ़े हो गये हैं और एकनाथको याद कर-करके रोते रहते हैं । गुरुजीको सुनकर आश्चर्य हुआ कि एकनाथ मेरे पास इतने वर्ष रहा, पर उसने अपने दादा-दादीके विषयमें कभी कहा ही नहीं ! उन्होंने एक पत्र लिखकर उस ब्राह्मणको दिया और कहा वह तीर्थयात्रा करते हुए जब पैठण आयेगा, तब उसको मेरा यह पत्र दे देना । मैंने कहा है, इसलिये वह पैठण जरूर आयेगा । ब्राह्मण पत्र लेकर चला गया । घूमते-घूमते जब एकनाथजी वहाँ पहुँचे तो वे दादा-दादीसे मिलने गाँवमें नहीं गये, प्रत्युत गाँवके बाहर ही ठहर गये । उस ब्राह्मणने जब एकनाथजीको देखा तो उनको पहचान लिया और उनके दादाजीका हाथ पकड़कर उनको एकनाथजीके पास ले चला । संयोगसे एकनाथजी रास्तेमें ही मिल गये । दादाजीने स्नेहपूर्वक एकनाथजीको गलेसे लगाया और गुरुजीका पत्र निकालकर कहा कि ‘यह तुम्हारे गुरुजीका पत्र है’ । यह सुनते ही एकनाथजी गद्‌गद हो गये । उन्होंने कपड़ा बिछाकर उसके ऊपर पत्र रखा, उसकी परिक्रमा करके दण्डवत् प्रणाम किया, फिर उसको पढ़ा । उसमें लिखा था कि ‘एकनाथ, तुम वहीं रहना’ । एकनाथजी वहीं बैठ गये । फिर उम्रभर वहाँसे कहीं गये नहीं । वहीं मकान बन गया । सत्संग शुरू हो गया । दादा-दादी उनके पास आकर रहे । फिर कभी गुरुजीसे मिलने भी नहीं गये । विचार करें, गुरु शरीर हुआ कि वचन हुआ ? जब गुरुजीका शरीर शान्त हो गया तो वे बोले कि ‘गुरु मरे और चेला रोये तो दोनोंको क्या ज्ञान मिला ?’ तात्पर्य है कि गुरु मरता नहीं और चेला रोता नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे