(गत ब्लॉगसे आगेका)
एकनाथजीके चरित्रमें जैसी गुरुभक्ति देखनेमें आती है, वैसी और
किसी सन्तके चरित्रमें देखनेमें नहीं आती । श्रीमद्भागवतके एकादश स्कन्धपर
उन्होंने मराठीमें जो टिका लिखी है, उसके प्रत्येक अध्यायके आरम्भमें उन्होंने
विस्तारसे गुरुकी स्तुति की है । ऐसे परम गुरुभक्त
एकनाथजीने भी गुरुसे बढ़कर उनके वचन (आज्ञा) को महत्त्व दिया ।
भगवान्से लाभ उठानेकी पाँच बातें हैंᅳनामजप, ध्यान, सेवा, आज्ञापालन
और संग । परन्तु सन्त-महात्माओंसे लाभ उठानेमें तीन ही बातें उपयुक्त हैंᅳसेवा, आज्ञापालन और संग । इसलिये गुरुका नाम-जप और ध्यान न करके उनकी आज्ञाका, उनके सिद्धान्तका
पालन करना चाहिये । गुरुके सिद्धान्तके अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तविक
गुरु-पूजन और गुरु-सेवा है । कारण कि सन्त-महात्माओंको शरीरसे भी बढ़कर
सिद्धान्त प्यारा होता है । सिद्धान्तकी रक्षाके लिये वे प्राण भी दे देते हैं, पर
सिद्धान्त नहीं छोड़ते ।
गुरु शरीर नहीं होता, प्रत्युत तत्त्व होता है । अतः सच्चे गुरु अपना पूजन-ध्यान नहीं करवाते, प्रत्युत भगवान्का
ही पूजन-ध्यान करवाते हैं । सच्चे सन्त अपनी आज्ञाका पालन भी नहीं करवाते,
प्रत्युत यही कहते हैं कि गीता, रामायण आदि ग्रन्थोंकी आज्ञाका पालन करो । जो गुरु अपनी फोटो देते हैं, उसको
गलेमें धारण करवाते हैं, उसकी पूजा और ध्यान करवाते हैं, वे धोखा देनेवाले होते
हैं । कहाँ तो भगवान्का चिन्मय पवित्र शरीर और कहाँ हाड़-मांसका जड़
अपवित्र शरीर ! जहाँ भगवान्की पूजा होनी चाहिये, वहाँ
हाड़-मांसके पुतलेकी पूजा होना बड़ा भारी दोष है । जैसे राजासे वैर करनेवाला, उससे
विरुद्ध चलनेवाला राजद्रोही होता है, ऐसे ही अपनी पूजा करनेवाला भगवद्द्रोही होता है ।
गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक और संरक्षक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकासे एक सज्जनने कहा कि हम आपकी फोटो लेना चाहते हैं तो उन्होंने
कहा कि पहले अपनी जूती लाकर मेरे सिरपर बाँध दो, पीछे फोटो ले लो ! अपनी पूजा करना
मैं जूता मारनेकी तरह समझता हूँ । एक बार सेठजीने एक सन्तसे पूछा कि आप
पुस्तकोंमें अपना चित्र दिया करते हैं, अपने नाम, चित्र आदिका प्रचार किया करते
हैं तो इससे आपका भला होता है या शिष्योंका भला होता है अथवा संसारका भला होता है
? किसका भला होता है ? इस प्रश्नका उत्तर उनसे देते नहीं बना ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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