।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७४, रविवार
जया एकादशी-व्रत (वैष्णव)
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताआप कहते हैं कि नामजप करना, कीर्तन करना भी अभ्यास है, तो फिर जल्दी भगवान्की प्राप्ति कैसे हो ?

स्वामीजीनामजप करना, कीर्तन करना अभ्यास नहीं है, प्रत्युत पुकार है । अभ्यासमें अपना बल होता है, पुकारमें जिसकी पुकार होती है, उसका बल होता है । साधन करनेकी अपेक्षा पुकार बढ़िया है । पुकार साधनसे बढ़कर है । जैसे बालक ‘माँ ! माँ !’ करके पुकारता है, ऐसे ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहकर भगवान्को पुकारो । अपने बलका भरोसा न रहे, तब पुकार असली, बढ़िया होती है । अपने बलका किंचिन्मात्र भी भरोसा न रहे, केवल भगवान्की कृपाका भरोसा रहे । भगवान्की कृपासे असम्भव भी सम्भव हो जाता है ।

श्रोताआप कहते हैं कि एकान्तकी इच्छा करनेवाला भोगी होता है यह बात समझमें नहीं आयी !

स्वामीजीएकान्त मिलनेपर वह राजी होता है कि नहीं ? राजी होना भोग ही तो है ! भोगीको परमात्मा थोड़े ही मिलते हैं !

श्रोताहमलोगोमे वैराग्य तो है नहीं, इसलिये शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरे लिये नहींयह बात भीतर ठहरती नहीं, ऊपर-ऊपर रह जाती है क्या करें ?

स्वामीजीभगवान्की कृपापर विश्वास कम है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं । अपने बलसे नहीं होगा । भगवान्में अपार, अनन्त बल है । भगवान् हैं और वे सर्वोपरि हैं, अद्वितीय हैं, सब समयमें हैं, सब जगह हैं, सबके हैं, सबके पासमें हैं, सर्वज्ञ हैं, परम सुहद् हैं । उनके समान हित करनेवाला दूसरा कोई है ही नहीं ।

उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु  बंधु प्रभु नाहीं ॥
              (मानस, किष्किन्धा १२ । १)

श्रोतापूरा विश्वास नहीं होता महाराजजी !

स्वामीजीभगवान्से माँगो । भगवान्से मिलता है ।

श्रोता‘सब जग ईस्वररूप है’यह माननेमें बाधा क्या रही है ?

स्वामीजीबाधा हैसंयोगजन्य सुखकी इच्छा । सुखभोग इतना बाधक नहीं है, जितनी सुखभोगकी लालसा बाधक है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे