(गत ब्लॉगसे आगेका)
विचार करें, संसार और शरीरकी सहायताके बिना हम
स्वतन्त्रतासे क्या कर सकते हैं ? हम कामना और ममता-रहित हो सकते हैं । कामना और ममता-रहित होनेमें शरीर-संसारकी, किसी वस्तु, व्यक्ति,
विद्या, योग्यता आदिकी आवश्यकता नहीं है ।
गीतामें आता है‒
विहाय कामान्यः
सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स
शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २ ।
७१)
‘जो मनुष्य सम्पूर्ण
कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित
होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है ।’
हम शरीर-संसारकी सहायताके बिना कामना, स्पृहा (जरूरत), ममता और
अहंकारका त्याग कर सकते हैं । इनका त्याग करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।
इसमें सब-के-सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है । गीताने चार बातें कही हैं, पर मैं कहता हूँ कि आप केवल दो बातोंको
स्वीकार कर लें कि मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये । मेरा कुछ नहीं है‒इसमें ममताका त्याग है, और मेरेको कुछ नहीं चाहिये‒इसमें कामनाका त्याग है ।
ममता और कामनाको आप चाहें तो अभी छोड़ सकते हैं । इसमें समय नहीं लगता । न समय की
जरूरत है, न सहायताकी जरूरत है, न
पढ़ाईकी जरूरत है, न योग्यताकी जरूरत है । आप जैसे हो,
वैसे ही ममता-कामनाको छोड़ सकते हो । जप-ध्यान आदि करनेमें कई बाधाएँ, विघ्न होते हैं,
पर ममता-कामनाका त्याग करनेमें कोई विघ्न,
अटकाव नहीं है । इनका त्याग करनेमें आपको कोई कमी नहीं आयेगी ।
श्रोता‒स्पृहा क्या है ?
स्वामीजी‒जरूरतको स्पृहा कहते हैं । जब हम
बटवृक्षके नीचे रहते थे, तब एक साधु आये । उन्होंने कहा कि भिक्षा लेनेके लिये एक
बर्तनकी जरूरत है, भले ही मिट्टीका हो । मैंने कहा कि मेरा
स्वयं कहनेका तो स्वभाव नहीं है, पर कोई पूछेगा तो कह देंगे
। पाँच-सात दिनके बाद वे साधु आकर बोले कि अब मत कहना;
क्योंकि बर्तनके बिना पाँच-सात दिन निकल गये
तो महीना भी निकल जायगा, महीना निकल जायगा तो वर्ष भी निकल
जायगा, वर्ष निकल जायगा तो उम्र भी निकल जायगी ! यह स्पृहा (जरूरत)-का त्याग है
!
हम सन्तोंको भी पूछ सकते हैं कि महाराज ! कोई जरूरत हो तो
बताओ, पर ऐसा नहीं पूछ सकते कि कोई कामना हो तो बताओ !
कोई तृष्णा हो तो बताओ !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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