।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
                            व्रत-पूर्णिमा
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतास्वप्नमें यदि भगवान्‌के दर्शन होते हों तो उसको हम भगवत्प्राप्ति मान सकते हैं क्या ?

स्वामीजीभगवान्‌के दर्शन होनेपर किसी बातकी किंचिन्मात्र भी कोई कमी रहती ही नहीं । अगर ऐसा अनुभव है तो मान लो । गीतामें आया है

यं लब्ध्वा चापरं लाभं   मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                               (गीता ६ । २२)

‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’

भगवत्प्राप्ति होनेपर दुःख तो नजदीक नहीं आता और महान् आनन्द प्राप्त हो जाता है । यह नहीं हुआ, तबतक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई । कोई आदमी अपनी ऊँची स्थितिकी कसौटी लगाना चाहे तो उसके लिये गीताभरमें उपर्युक्त श्लोक सबसे श्रेष्ठ है !

भगवत्प्राप्ति हुई कि नहीं हुईयह माननेकी चीज नहीं है । प्यास लगनेपर जलसे तृप्ति हो जाती है, भूख लगनेपर अन्नसे तृसि हो जाती है तो यह तृप्ति फिर मिट जाती है । परन्तु भगवत्प्राप्तिसे होनेवाली तृप्ति कभी मिटती नहीं ।

अनुकूलतामें राजी होना और प्रतिकूलतामें नाराज होना संसारके सम्बन्धको दृढ़ करता है । इससे बड़ी भारी हानि होती है । संसारमें हमारी जो आसक्ति है, प्रियता है, खिंचाव है, अच्छापन दीखता है, यह हमारी बड़ी भारी हानि है ! यह चौरासी लाख योनियोंमें, नरकोंमें ले जानेवाली चीज है । इसलिये अनुकूलता-प्रतिकूलता आये तो उसकी परवाह मत करो और आर्त होकर भगवान्‌को ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारो । इससे बड़ी-से-बड़ी कठिनता मिट जायगी और बहुत सुगमतासे परमात्मप्राप्तिका रास्ता मिल जायगा ।

प्रतिकूलतामें प्रसन्न होना चाहिये । अपना लाभ प्रतिकूलतामें है । कारण कि प्रतिकूलतामें पापोंका नाश होता है तथा वर्तमानमें उन्नति होती है । अनुकूलतामें पुण्योंका नाश होता है तथा पतन होता है । आपको पापोंका नाश करना है कि पुण्योंका नाश करना है ?

जितने अच्छे साधु हैं, ब्राह्मण हैं, पढ़े-लिखे हैं, उन्होंने पढ़ाईमें दुःख भोगा है । परन्तु कलियुगमें विद्यार्थी सुखी होते हैं‘विद्यार्थिनो कलियुगे सुखिनो भवन्ति’ ! आजकल विद्यार्थियोंके लिये जितनी अनुकूलता, सुख-सुविधा कर दी है, उतनी विद्या नष्ट हो गयी है !

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या    कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥
                                      (चाणक्यनीति १० । ३)

‘यदि सुखकी इच्छा हो तो विद्याको छोड़ दे और यदि विद्याकी इच्छा हो तो सुखको छोड़ दे; क्योंकि सुख चाहनेवालेको विद्या कहाँ और विद्या चाहनेवालेको सुख कहाँ ?


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे