।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७५, रविवार
                    मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतासब कुछ भगवान् हैंयह बात बुद्धिके द्वारा तो समझमें आती है, पर जिससे तत्काल भगवत्प्राप्ति हो जाय, ऐसी मान्यता कैसी होती है ?

स्वामीजीसाक्षात् होती है ! स्थावर-जंगम सब साक्षात् भगवान्‌का स्वरूप हैऐसा पक्का विश्वास हो जाय तो तत्काल भगवत्प्राप्ति होती है । जगत्‌की धारणा केवल आपने ही कर रखी है । गीताने साफ कहा हैययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) न भगवान्‌की दृष्टिमें जगत्‌ है, न महात्माकी दृष्टिमें जगत्‌ है । जगत्‌ केवल आपकी कल्पनामें है । जगत्‌ केवल आपका माना हुआ है और आप नहीं मानो तो मिट जायगा, मिट जायगा, मिट जायगा ! इसमें कोई पराधीनता नहीं है, बिल्कुल स्वतन्त्रता है । आप नहीं मानो तो जगत्‌ है ही नहीं, सच्ची बात है । जगत्‌में रहनेकी ताकत नहीं है । जगत्‌की ताकत केवल आपकी मान्यताके भीतर ही है । आप मानो तो जगत्‌ रहेगा, आप नहीं मानो तो नहीं रहेगा । इसलिये आप छाती कड़ी करके, दाँत भींचकर मान लो कि यह भगवान् हैं....यह भगवान् हैं.....यह भगवान् हैं ! निहाल हो जाओगे ! ऐसा माननेमें सब भाई-बहन स्वतन्त्र हैं ।

भगवान्‌ने आपको जो स्वतन्त्रता दी है, वह जगत्‌को धारण करनेके लिये नहीं, प्रत्युत जगत्‌से अतीत तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये दी है । परन्तु आपने जगत्‌को पक्का कर लिया !

सब भगवान् हैंयह असली शरणागति है । इसमें एक मार्मिक बात है कि वासुदेवः सर्वम् में मैंनहीं है अर्थात् सब कुछ वासुदेव है, मैं हूँ ही नहीं ! अपने-आपको भगवान्‌में लीन कर दें । वासुदेवसे आप अपनेको अलग मत रखना । जो अपनेको वासुदेवसे अलग मानता है, उसको वासुदेवः सर्वम् कहनेका अधिकार नहीं है ! भगवान्‌के चरणोंके शरण होना यह है कि भगवान् ही रह जायँ । आप अलग रहते हो तो जगत्‌को धारण करते हो । जो अपने-आपको भगवान्‌में लीन कर देता है, वह जगत्‌को धारण नहीं करता ।


एक विलक्षण बात है । जैसे आँखसे रूप ही दीखता है, शब्द नहीं सुनायी देता, कानसे शब्द ही सुनायी देता है, रूप नहीं दीखता, ऐसे ही हमारे पास जो अन्तःकरण है, इन्द्रियाँ हैं, उनसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं दीखते । स्वयं परमात्माका अंश है, इसलिये परमात्माको स्वयंसे ही देख सकते हैं, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे नहीं । ये बातें सन्तोंकी वाणीमें इतनी साफ नहीं आतीं । उनमें मन लगानेकी बात आती है । गीतामें भी मन लगानेकी बात आती हैमय्येव मन आधत्स्व’ (गीता १२ । ८) स्वयंसे देखोगे तो परमात्मा दीखेगा, और मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे देखोगे तो संसार दीखेगा । आप स्वयं जिस श्रेणीके हो, उसी श्रेणीके परमात्मा हैं ! इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम्‌ सब जड़ प्रकृतिके हैं । जो इनसे रहित हो जाता है, उस स्वयंको शान्ति प्राप्त हो जाती हैनिर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) इसलिये साधक निराकार होता है, शरीर नहीं होता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे