(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग
आदि साधन करना तो बादमें है, सबसे पहले तो उद्देश्य बनाना है
कि हमें संसारमें, जन्म-मरणमें जाना है
या अपना कल्याण करना है । इसमें एक विलक्षण बात है कि परमात्मामें
लगे हुएके द्वारा संसारका अहित नहीं होता और संसारमें लगे हुएको परमात्माकी प्राप्ति
नहीं होती । जो परमात्मप्राप्तिमे लग जाता है, उसके द्वारा
संसारकी सेवा होती है, संसारका हित होता है, संसारको लाभ होता है, और अपना कल्याण तो होता ही है ।
दोनोंको लाभ होता है । परन्तु संसारमें लगनेसे अपनेको भी लाभ नहीं होता और संसारको
भी लाभ नहीं होता । परमात्मामें ही लगे हुए गोस्वामीजी महाराज-जैसे सन्तोंके द्वारा दुनियाका बड़ा भारी हित होता है । परन्तु संसारमें लगे
हुए मनुष्यके द्वारा अपना और दुनियाका भी लाभ नहीं होता, प्रत्युत
केवल नुकसान-ही-नुकसान होता है !
कारण यह है कि मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है
। मनुष्यशरीर सुख भोगनेके लिये नहीं है‒‘एहि
तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस,
उत्तर॰ ४४ । १) ।
श्रोता‒रामजीके एक ही रूपका
ध्यान करें या वनवासी आदि रूपोंका भी ध्यान
करें ?
स्वामीजी‒एक ही रूपका ध्यान करो । भगवान्की
लीलाएँ अनेक तरहकी हैं, पर ध्यान एक ही होना चाहिये । तभी ध्यान जमेगा । ध्यानको बदलो
मत ।
श्रोता‒कभी-कभी अचिन्तनकी
स्थिति होती है ।
स्वामीजी‒उसमें भगवान्की मरजी मानो । कुछ भी
चिन्तन मत करो । चिन्तन करनेवाला भी भगवान्के चरणोंमें लीन हो जाय । चिन्तन करनेवाला
भी नहीं रहे !
केवल भगवान् ही रह जायँ, मैं रहे ही नहीं !
श्रोता‒भगवान्के दर्शनके लिये यदि खाना-पीना छोड़कर हठपूर्वक बैठ जायँ
तो क्या भगवान् हमारे पास नहीं आयेंगे ?
स्वामीजी‒हठ नहीं करना चाहिये । इसलिये मैं ‘बजरंगबाण’
के पाठको भी बढ़िया नहीं मानता । इष्टको दबाना नहीं चाहिये । अपने इष्टदेवसे प्रार्थना
करना तो ठीक है,
पर उनपर दबाव डालना, उनको शपथ या दुहाई देकर कार्य
करनेके लिये विवश करना, उनसे हठ करना ठीक नहीं है । ‘बजरंगबाण’
में हनुमान्जीपर ऐसा ही अनुचित दबाव डाला गया है; जैसे‒‘इन्हें मारु तोहि सपथ राम की’,
‘सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै’, ‘जनकसुता हरिदास कहावौ । ता की सपथ विलंब न लावौ ॥’, ‘उठ
उठ चलु तोहि राम दोहाई’ । इस तरह दबाव डालनेसे इष्टदेव राजी नहीं
होते, उल्टे नाराज होते हैं ।
हम किसीको दबाकर काम करायेंगे तो वे राजी कैसे होगा ? हमारा लड़का है और हम
लड़कीवालेको दबायें कि इतने रुपये दो तो यह पाप है पाप ! दूसरा
दे न दे, उसकी मरजी । किसीको भी बाँधो मत । सबको खुला रखो । जो
हमारा इष्टदेव कहलाता है, उसको भी बाँधना पाप है, अन्याय है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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