(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे कोई भूला हुआ आदमी शामतक घर पहुँच गया, और अभीतक रोटी नहीं
बनी है, भोजन भी नहीं किया है; परन्तु एक
सन्तोष होता है कि घरपर पहुँच गये ! अब धीरे-धीरे रोटी भी बन जायगी, भोजन भी कर लेंगे, आराम भी करेंगे ! इसी तरहसे भगवान्के शरण होते ही मनकी
हलचल मिट जाती है कि अब अपने असली घरपर आ गये ! यह संसार मुसाफिरी
है, घर नहीं है । मुसाफिरीमें बढ़िया-से-बढ़िया चीज मिले तो भी है मुसाफिरी ही ! यक्षने युधिष्ठिरसे
प्रश्न किया कि सुखी कौन है ? तो युधिष्ठिरने उत्तर दिया‒
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं
पचति स्वे गृहे ।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर
मोदते ॥
(महाभारत,
वन॰ ३१३ । ११५)
‘जलचर यक्ष ! जिस
पुरुषपर किसीका ऋण नहीं है और जो परदेशमें नहीं है, वह भले ही
पाँचवें या छठे दिन अपने घरके भीतर साग-पात ही पकाकर खाता हो,
तो भी वह सुखी है ।’
एक भगवान्का आश्रय ही पक्का है, शेष सब आश्रय कच्चे
हैं । माँ बाप, पति, पुत्र, मित्र आदि कोई सदा साथ नहीं रहता । परन्तु भगवान् कभी साथ छोड़ते ही नहीं !
नरकोंमें चले जाय तो भी वे साथ छोड़ते नहीं ! केवल
आप अपनी तरफसे तैयारी कर लो, फिर सब काम भगवान् करेंगे !
मनसे तैयारी कर लो कि ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’
। दूसरा सहारा मत रखो । शरण लेना, स्वीकार करना, सब पापोंसे मुक्त करना, सब दुःखोंसे छुटकारा देना भगवान्का
काम है । आप केवल दूसरा आश्रय छोड़कर तैयार हो जाओ । अपनी तरफसे तैयारी, नीयत, विचार कर लो कि ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ । फिर सब काम भगवान् कर देंगे ।
व्याकुल होकर भगवान्को ‘हे नाथ
! हे मेरे नाथ !’ पुकारो । यह बहुत बढ़िया साधन
है । इससे सब कमजोरियाँ मिट जायँगी, सब पाप-ताप मिट जायँगे ! असली व्याकुलता होगी तो भगवान् पिघल जायँगे ! वे सर्वसमर्थ हैं ।
उनकी कृपासे सब काम ठीक हो जायगा ।
श्रोता‒आपने कहा कि दुःखी
व्यक्तिको देखकर करुणित होना चाहिये, लेकिन जब उसकी सेवा करते
हैं, तब अपनेको सेवाके योग्य नहीं पाते हैं ।
हमारे मनमें उसके हितका भाव तो है, लेकिन फिर भी मनकी हलचल
नहीं मिटती है !
स्वामीजी‒सेवा करना दूर रहा, उसको पता ही न लगे
! आप उसके लिये एकान्तमें रोओ, करुणित हो
जाओ । उस दुःखी आदमीको भी पता न लगे कि यह मेरे लिये दुःखी है । उसके लिये रोओ,
दुःखी हो जाओ‒यह कर्मयोगका बहुत बढ़िया साधन है
। इससे आपकी जरूर उन्नति होगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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