।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
                    मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतागीताजीको ताबीज-रूपसे गलेमें धारण कर सकते हैं क्या ?

स्वामीजीलोग पैसा कमानेके लिये गीताजीकी ताबीज बनाते हैं तो वह चीज बढ़िया नहीं होती । गीताजीको ऊपरसे धारण न करके भीतरसे कण्ठमें धारण कर लो अर्थात् कण्ठस्थ कर लो, याद कर लो । गीताको याद करनेका जो माहात्म्य है, वह ताबीजका नहीं है । अपना जीवन गीताके अनुसार बना लो । चलती-फिरती गीता बन जाओ !

भगवान्‌के शरण होनेको गीताने सर्वश्रेष्ठ बताया है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ज्ञानमार्ग, योगमार्ग आदि कमजोर हैं । परन्तु गीतामें भक्तिकी महिमा ज्यादा आयी है । व्यक्ति जितनी अपने मनकी बात रखता है, उतना ही वह भगवान्‌से दूर होता है । परन्तु जो अपने मनकी बात छोड़कर भगवान्‌के मनमें अपना मन मिला देता है, उसकी जल्दी उन्नति होती है । हरेक साधनकी एक चाबी होती है । अपनी मरजीको भगवान्‌की मरजीमें मिला दे । यह बहुत बढ़िया, बहुत ऊँचा साधन है ! जितनी अपनी मरजी लगाओगे, उतनी देरी होगी । अतः भगवान्‌के शरण हो जायँ । जितना भगवान्‌पर निर्भर होते हैं, उतना जल्दी काम होता है; क्योंकि वहाँ भगवान्‌की शक्ति काम करती है । अपनी मरजी लगानेसे अपनी शक्ति काम करती है । हमारी शक्ति और भगवान्‌की शक्तिमें आकाश-पातालका फर्क है ! भगवान्‌की शक्ति अपार है, असीम है, अनन्त है ! इसलिये अपनी कोई शक्ति, धारणा, माँग, चाहना न रखे । अपनेको ही न रखे, प्रत्युत भगवान्‌में मिला दे ।

जितना-जितना अपना अभिमान रहता है, उतने-उतने हम भगवान्‌से दूर होते हैं । अपने अभिमानके सिवाय दूसरा कोई दूर रहनेका कारण नहीं है । अतः अपनेपर कोई बोझ रखे ही नहीं, भगवान्‌पर छोड़ दे कि तू जाने, तेरा काम जाने ! जितना भगवान्‌पर छोड़ेंगे, उतना ही काम बढ़िया होगा; क्योंकि उसमें भगवान्‌का बल काम करेगा । भगवान्‌ने कहा है‘मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८ । ६६) ‘एक मेरी शरणमें आ जा’ । इसलिये अपने बलका, वर्णका, आश्रमका सहारा न रखे । मैं साधु हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं पढ़ा-लिखा हूँ, मैं पण्डित हूँयह भार भी न रखे । सारा बोझ भगवान्‌पर डालकर आप हल्का हो जाय ! पाण्डवोंने भगवान्‌का सहारा लिया तो पाँचों भाइयोंमें एक भी नहीं मरा और अपनेपर भार लेनेवाले सौ कौरवोंमें एक भी नहीं रहा, सब-के-सब मर गये !

श्रोताशरणागति और आत्मसमर्पण एक ही हैं क्या ?

स्वामीजीएक ही हैं । आत्मसमर्पणसे शरणागति पूरी हो जाती है । मैं-पन भगवान्‌में ही मिला देना आत्मसमर्पण है । मैं-पन अलग रहे ही नहीं । सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाय । वास्तवमें भगवान्‌का अंश होनेसे हम सदासे ही भगवान्‌के हैं, केवल भूल गये !


सज्जनो ! भगवान्‌के शरण हो जाओ । भगवान्‌की कृपासे सब काम ठीक हो जायगा ! सब चिन्ता, शोक, हलचल, सन्ताप, जलन, दुःख मिट जायगा ! भगवान्‌से दूर होनेसे ही दुःख हुआ है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे