(गत ब्लॉगसे आगेका)
[ निम्नलिखित विषय पैम्फ्लैटके रूपमें गीताभवन,
स्वर्गाश्रम, ऋषिकेशमें सत्संग-कार्यक्रममें आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, २०५८ (दि॰ ५.७.२००१) के दिन वितरित किया गया था । इसके प्रति परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजने
दिनांक १७.७.२००१, प्रातः ८.३० को अपने प्रवचनमें कहा था‒‘इस पन्नेमें लिखी हुई बातें
बहुत मूल्यवान् हैं ! यह पन्ना इतना मुख्य है कि हजारों ग्रन्थोंमें जो चीज नहीं मिलेगी
वह इसमें मिलेगी !]
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
परमात्मप्राप्तिके तीन मुख्य मार्ग
परमात्मप्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । इसमें न तो
भविष्यकी अपेक्षा है और न क्रिया एवं पदार्थकी ही अपेक्षा है । परमात्मप्राप्तिके तीन
मुख्य मार्ग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । भगवान् कहते
हैं‒
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता
नृणां
श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति
कुत्रचित् ॥
(श्रीमद्भागवत
११ । २० । ६)
‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके
लिये मैंने तीन योग बताये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग
और भक्तियोग । तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’
ज्ञानयोग (विवेकमार्ग)
अपने जाने हुए असत्का त्याग करना ‘ज्ञानयोग’ है । इसके तीन
उपाय हैं‒
१. अनन्त ब्रह्माण्डोमें लेशमात्र भी कोई
वस्तु मेरी नहीं है‒ ऐसा जानना ।
२. मुझे कुछ भी नहीं चाहिये‒ऐसा जानना ।
३. ‘मैं’ कुछ नहीं है‒ऐसा जानना ।
कर्मयोग (योगमार्ग)
बुराईका सर्वथा त्याग करना ‘कर्मयोग’ है । इसके तीन उपाय
हैं‒
१. किसीको बुरा न समझना, किसीका बुरा न चाहना
और किसीका बुरा न करना ।
२. दुःखी व्यक्तियोंको देखकर करुणित और
सुखी व्यक्तियोंको देखकर प्रसन्न होना ।
३. अपने लिये कुछ न करना अर्थात् संसारसे
मिली हुई वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देना और बदलेमें कुछ न चाहना ।
भक्तियोग (विश्वासमार्ग)
सर्वथा भगवान्के शरणागत हो जाना ‘भक्तियोग’ है । इसके
दो उपाय हैं‒
१.
मैं केवल भगवान्का अंश हूँ‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५ । ७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । भगवान्का ही अंश होनेके नाते मैं
केवल भगवान्का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं । भगवान्के सिवाय और कोई मेरा नहीं
है‒ऐसा मानना ।
२.
क) सब कुछ भगवान्का ही है अर्थात् संसारमें जो कुछ भी
देखने, सुनने तथा मनन करनेमें
आता है, वह सब भगवान्का ही है‒ऐसा मानना
।
ख) सब कुछ भगवान् ही हैं; भगवान्के सिवाय कुछ
भी नहीं है । ‘मैं’-सहित सम्पूर्ण जगत्
उन्हींका स्वरूप है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९)‒ऐसा
मानना ।
ग) एक भगवान्के सिवाय अन्य कुछ हुआ ही
नहीं, कभी होगा ही नहीं,
कभी होना सम्भव ही नहीं । एकमात्र भगवान् ही थे, भगवान् ही हैं और भगवान् ही रहेंगे‒ऐसा मानना ।
भक्तिसे प्रतिक्षण वर्धमान परमप्रेमकी
प्राप्ति होती है । एक भगवान् ही प्रेमी और प्रेमास्पदका रूप धारण करके परमप्रेमकी
लीला करते हैं । उस परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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