श्रोता‒यहाँ सत्संगमें तो सब जगह भगवान् ही दीखता है, पर
घर जानेपर, गृहस्थके
वातावरणमें सब भूल जाते हैं ! कोई सुगम रास्ता बतायें ।
स्वामीजी‒सुगम रास्ता तो मैं बताता हूँ पर आप सुनते ही नहीं ! आप दो-चार
मिनटमें, दस-पन्द्रह मिनटमें यह बात मनसे कहना शुरू दो कि ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । करके देखो तो सही ! आपको कितना ही सुगम
बतायें, आप करते ही नहीं ! जब करना ही
नहीं है, तो सुगम हो तो क्या, कठिन
हो तो क्या ! आप सुन लेते हैं तो यह भी आपकी कृपा है !
श्रोता‒अपनेमें कोई विकार नहीं है‒ऐसी धारणा करनेपर
तत्त्वकी प्राप्ति शीघ्रतासे हो जाती है । इस विषयको आप बतायें, जिससे
हमें इसका अनुभव हो जाय ।
स्वामीजी‒देखो भाई, यह तमाशा नहीं है ! लगन होनी चाहिये । भीतरमें लगन हो कि
तत्त्वज्ञान कैसे हो ? कहाँ जाऊँ ? किससे पूछूँ ? ऐसी लगन हो, फिर मैं बताऊँ तो आप करोगे,
नहीं तो करोगे नहीं । ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’‒यह कोई कम नहीं है,
बहुत बढ़िया चीज है । महीना-दो महीना करके देखो तो सही !
इससे बड़ी कोई चीज है नहीं !
श्रोता‒क्या राधाजीकी उपासनाके बिना भगवान् कृष्णको नहीं पाया जा सकता ?
स्वामीजी‒आप करके तो देखो ! कोरी बातें कहनेसे क्या लाभ
? शास्त्रमें ऐसा आता है,
पर यह नियम नहीं है ।
श्रोता‒शरीरी जब शरीरको छोड़ देता है, तब
मृत शरीरकी हड्डियाँ गंगाजीमें डालनेसे किसको लाभ होगा, शरीरको
या शरीरीको ?
स्वामीजी‒शरीरीको लाभ होगा;
क्योंकि उसने शरीरको अपना माना था ।
श्रोता‒दस वर्षोंसे एक प्रश्न मनमें बोझा बना हुआ है कि सत्संग करनेपर भी हमारी
कथनी और करनीमें अन्तर क्यों रहता है ?
स्वामीजी‒आपका पक्का विचार नहीं हुआ है । पक्का विचार हो जाय तो कथनी
और करनीमें फर्क मिट जायगा । जबतक आप पक्का विचार नहीं करेंगे,
तबतक यह फर्क मिटेगा नहीं,
चाहे सौ वर्ष क्यों न बीत जायँ ! लगन हो तो एक दिनमें फर्क
पड़ जायगा ।
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