मुक्तिके लिये कर्म नहीं करना है,
प्रत्युत कर्म करनेका वेग शान्त करनेके लिये कर्म करना है ।
कर्म करनेसे कर्मोंसे मुक्ति नहीं होती । भगवान्के शरण हो जाओ तो मुक्ति हो जायगी
। जो कुछ करें, केवल भगवान्के लिये ही करें । एक ही धुन लगा दें कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’
। भगवान् को भूलें नहीं तो सब काम ठीक हो जायगा । जैसे,
नरसीजीने भगवान्से कहा‒‘हूँ
तनै सिवरूँ, तूँ भर माहेरौ, कर लौ आटौ-साटौ’ (मैं तुम्हारा भजन करता हूँ, तुम मेरा माहेरा भर दो,
हमलोग ऐसा ही सौदा कर लें) ।
पारमार्थिक मार्ग बहुत सुगम है ! संसारके कामोंमें तो बहुत झंझट
हैं, पर पारमार्थिक मार्गमें कोई झंझट है ही नहीं । हमें कुछ नहीं चाहिये,
केवल भगवान् चाहिये । कुछ भी इच्छा नहीं करना है,
न जीनेकी, न मरनेकी । जैसे भगवान् रखें,
वैसे रहना है ।
सत्संगकी जितनी बातें हैं, उनमें
सार बात यह है कि हम भगवानके हैं,
भगवान् हमारे हैं । ऐसा कोई है ही नहीं,
जो भगवान्का न हो । जो साधु होता है,
वह अपनेको भगवान्का मानता है । जो
साधु अपनेको ब्राह्मण मानता है,
वह असली साधु नहीं हुआ । साधुकी जाति मानना उसका तिरस्कार है ।
श्रोता‒हमने
अच्छी तरह विचार करके यह निर्णय किया है कि हमें भगवान्की आवश्यकता नहीं है ।
स्वामीजी‒भगवान्की आवश्यकता नहीं है तो फिर पूछनेकी जरूरत ही नहीं । खाओ-पीओ,
मौज करो ! बिना सींगके पशु तरह ही हैं ! सींगके बिना पशु भद्दा
होता है ! पर यह याद रखो कि भगवान्को माने बिना शान्ति कभी
नहीं मिलेगी । तरह-तरहका रंग-रंगीला दुःख आयेगा ! दुःख पाते ही रहोगे, कभी
अन्त नहीं आयेगा ।
एकस्य दुःखस्य न
यावदन्तं
गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं
समुपस्थितं मे
छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ॥
(पञ्चतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति
१८६)
‘समुद्रको पार करनेकी तरह जबतक एक दुःखका पार (अन्त) नहीं आता, तबतक दूसरा दुःख आ धमकता है; ठीक ही है, अभावमें अनर्थोंकी बहुलता होती है
।’
एक कॉलेजमें मैं गया । वहाँ सब शिक्षक सुनने आये थे । एकने कहा
कि भगवान् कोई है ही नहीं । वह अपनी बात बोलकर बैठ गया । मैं कुछ बोला नहीं तो उसने
कहा कि आप बोलो । मैंने कहा कि तुमने निर्णय कर लिया,
अब मैं क्यों बोलूँ
? बिना बोले मुझे खुजली आती है
क्या ? हमारे भगवान् इतने घटिया नहीं हैं कि उन्हें माननेके
लिये तुम्हें कहना पड़े । तुम तुम्हारी
मानो, हम हमारी मानेंगे । तुम हमारी मानोगे नहीं,
हम तुम्हारी मानेंगे नहीं । फिर निरर्थक समय बरबाद क्यों करें
? तुम्हें हमारी जरूरत नहीं,
हमें तुम्हारी जरूरत नहीं ! हम भी मस्त,
तुम भी मस्त !
कोई हाल मस्त कोई माल मस्त कोई तूती मैना सूवे में ।
कोई खान मस्त पहिरान मस्त कोई राग रागिणी धूवे में ॥
कोई अमल मस्त कोई रमल मस्त कोई शतरंज चौपड़ जूवे में ।
एक खुद-मस्ती बिन और मस्त सब पड़े अविद्या कूवे में
॥
शरणानन्दजी कहते थे कि मैं भगवान्का प्रचारक नहीं
हूँ । हमारे भगवान् कमजोर नहीं हैं जो हम उनका प्रचार करें ।
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