श्रोता‒जैसे
नरसीके अन्दर भगवान्की भक्तिका भाव जाग्रत् हुआ, ऐसे
हम भी चाहते हैं, लेकिन
हमारे मनमें होता नहीं, क्या
बात है ?
स्वामीजी‒आप चाहते ही नहीं । चाहते तो जरूर होता ।
श्रोता‒आप
अपनी फोटोके लिये मना क्यों करते हैं ? जब
आप नहीं रहेंगे, तब
हम आपकी फोटो देखकर आपको याद करेंगे । जैसे, भगवान्की
फोटो होती है तो भगवान्को याद करते हैं, पूजा करते
हैं । आगे आनेवाली पीढ़ी भी देखेगी कि ऐसे महाराजजी थे !
स्वामीजी‒हम ऐसे पूजा करवाना चाहते नहीं । हम इसके योग्य नहीं हैं । हम चाहते हैं कि भगवान्की
ही फोटो हो और भगवान्का ही पूजन हो, मनुष्यका पूजन न हो । अपनी फोटो लगानेसे भगवान्के चिन्तनमें
बाधा लगेगी, विघ्न पड़ेगा । हम जितनी फोटुएँ लगायेंगे,
उतनी भगवान्की फोटुएँ कम लगेंगी तो हानि ही होगी ! हम अपनी
तरफसे भगवान्की यादमें बाधा देना नहीं चाहते । भगवान्को याद करनेकी जैसी जरूरत है, वैसी हमें
याद करनेकी जरूरत नहीं है....नहीं है....नहीं है ! मनुष्यका कल्याण जैसे भगवान्को
याद करनेसे होगा, वैसे हमें याद करनेसे
नहीं होगा । क्या हम भगवान्के समकक्ष हैं जो भगवान्की फोटोकी जगह अपनी फोटो लगवायें ?
अपनी फोटोका प्रचार करनेको मैंने अच्छा नहीं माना है । आप मेरी
मान्यताको आदर दोगे या फोटोको आदर दोगे ?
श्रोता‒हमारी
भगवान्में आस्था भी है, चलते-फिरते
नाम भी लेते हैं, लेकिन
सन्ध्या करते हैं या ध्यान करते हैं तो बीच-बीचमें भगवान्का स्वरूप अटक-भटक जाता है
। क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी‒भगवान्से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’
। भाई-बहन ध्यान दें,
ये जितने प्रश्न पूछे जाते हैं,
उनमें आप उपाय पूछते हो । पर वास्तवमें
ऊपरका उपाय काम नहीं करता, प्रत्युत भीतरकी चाहना काम करती है । भगवान् आपके भीतरकी लालसाको जानते हैं । आपकी लालसा होगी तो
जरूर फायदा होगा, इसमें सन्देह नहीं है । ऊपरके उपायोंसे अथवा नकली उपायोंसे काम
नहीं चलेगा । भीतरसे असली लगन लगाओ ।
आप भीतरसे संसारको चाहते हैं कि भगवान्को चाहते हैं
? आपको संसार (स्त्री,
पुत्र, रुपये आदि) प्यारा लगता है कि भगवान् प्यारे लगते हैं
? आपको स्वतः-स्वाभाविक संसारकी
याद आती है कि भगवान्की याद आती है ? आपको रुपयोंकी आवश्यकता है कि भगवान्की आवश्यकता है
? इन बातोंपर आप विचार करो ।
आप भगवान्का चिन्तन करते हैं और संसारका चिन्तन होता है
। जो ‘करते’
हैं,
वह नकली है और जो ‘होता’ है, वह
असली है । असली बात भगवान्की
होनी चाहिये, संसारकी नहीं । भीतरमें भगवान्की लालसा है तो भगवान्का चिन्तन
जरूर होगा । अगर भीतरमें संसारकी लालसा है तो भले ही भगवान्का चिन्तन करो,
होगा संसारका ही चिन्तन ।
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