।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
                    अनन्तकी ओर     



श्रोता‒आप कहते हैं कि शरीर हमारे काम नहीं आता, पर रामायणमें कहा है‒तन बिनु बेद भजन नहिं बरना’ (मानस, उत्तर ९६ । ३)

स्वामीजी‒ठीक कहा है; क्योंकि मनुष्य जप करेगा तो जबानसे ही करेगा । बिना शरीरके जप कैसे करेगा ? परन्तु शरीरके द्वारा हम परमात्माकी प्राप्ति कर लेंगे‒यह बात नहीं है । स्थूल क्रियासे परमात्मप्राप्ति नहीं होती । राम-नामका टेप (कैसेट या सी.डी.) लगा दो तो क्या परमात्मप्राप्ति हो जायगी ? अतः परमात्माकी प्राप्ति जड़ क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत भीतरके भावसे होती है ।

नामजप उपासना है, क्रिया नहीं । क्रिया, उपासना और विवेक‒ये तीनों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । क्रिया और पदार्थ परमात्मासे दूर हैं । उपासना परमात्माके नजदीक है, और उसकी अपेक्षा विवेक नजदीक है । क्रिया और पदार्थका भरोसा परमात्मामें भरोसा नहीं होने देगा । क्रिया और पदार्थमें सन्तोष होगा तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी । भावके सहित जो क्रिया होती है, वह उपासना होती है । उससे भी विवेक तेज है । विवेक ही बोधमें परिणत होता है । क्रिया और पदार्थके द्वारा परमात्मप्राप्ति नहीं होती‒ यह ज्ञान होना भगवान्‌का वरदान है, कृपा है !

प्रार्थना भी शरीरसे होती है, पर यह उपासना है । प्रार्थनाका सम्बन्ध साक्षात् परमात्माके साथ है । हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’यह बहुत बढ़िया प्रार्थना है । यह करण-निरपेक्ष है; क्योंकि यह स्वयंकी पुकार है । इसमें मनकी मुख्यता नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी मुख्यता है । परमात्मामें मन लगाना, ध्यान करना करण-सापेक्ष है । करण-सापेक्ष साधनमें ही साधक योगभ्रष्‍ट होता है । ध्यानसे भी कर्मयोग श्रेष्ठ है‒‘ध्यानात्कर्मफलत्यागः’ (गीता १२ । १२)हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’इसमें भावकी मुख्यता है, क्रियाकी नहीं ।

कर्मयोगसे शान्ति मिलती है, जिससे ब्राह्मी स्थिति होती है । ज्ञानयोगसे परमात्माकी प्राप्ति होती है । भक्तियोगसे परमात्मा वशमें हो जाते हैं ! भक्त भगवान्‌के परायण होता है तो भगवान् भी भक्तके परायण हो जाते हैं ।


आजकल लोग कई तरहकी उलझनोंमें उलझे हुए हैं ! कई नवयुवक ऋषिकेशमें आ जाते हैं और कहते हैं कि हम तो माँ-बापको बिना बताये आ गये ! माँ-बाप तो स्वार्थी हैं । हम तो पारमार्थिक मार्गपर चलना चाहते हैं । वास्तवमें यह परमार्थ नहीं है । सिरपर तो कर्जा है, पर दान कर रहे हैं ! जिन माँ-बापसे मनुष्यजन्म पाया है, उनकी तो सेवा करते नहीं, पर दुनियाकी सेवा करते हो‒यह पाप है पाप ! पुण्य नहीं है यह । माँ-बापसे आपने शरीर लिया है, दूध पिया है, अन्न-जल लिया है, शिक्षा ली है, उनको नाराज करके दुनियाका भला करते हो‒यह क्या आपका कर्तव्य है ? ऐसे कई नवयुवकोंको रोककर हमने उनके घरवालोंको समाचार दिया है । वे अपनेको स्वयंसेवक कहते हैं तो वास्तवमें वे दूसरोंके सेवक नहीं हैं, प्रत्युत स्वयंसेवक अर्थात् अपने ही सेवक हैं; क्योंकि बाहर जाकर सेवा करनेसे वाह-वाह (महिमा) होती है, घरमें वाह-वाह नहीं होती ! वास्तवमें उनका सेवा करनेका शौक नहीं है, प्रत्युत अपनी महिमा करवानेका शौक है ।