मन करण है, कर्ता नहीं । कर्ता आप हैं । जैसे जहाँतक लाइन बिछी है,
वहींतक रेलगाड़ी जाती है,
ऐसे ही आपने जहाँ-जहाँ सम्बन्ध जोड़ा है,
वहाँ-वहाँ ही मन जाता है । पहले आप सम्बन्ध जोड़ते हैं,
फिर वहाँ मन जाता है । अतः मन दोषी नहीं है,
प्रत्युत कर्ता अर्थात् आप दोषी हैं । मन खराब नहीं है,
आप खराब हो !
जो भगवान्की कथा सुनाते हैं, भगवान्की
लीलाका वर्णन करते हैं, भगवान्की चर्चा करते हैं, वे
अनुभवी न हों तो भी लाभ होता है । परन्तु उनको तात्त्विक, उपदेशकी
बातें कहनेका अधिकार नहीं है । इसका अधिकार उनको है, जिन्होंने
अनुभव करके देखा है ।
सच्ची बात तो एक ही है भाई ! एक परमात्मा ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता
७ । १९) । एक परमात्माके
सिवाय दूसरा कोई था ही नहीं, कोई है ही नहीं, कोई होगा ही नहीं, कोई हो सकता ही नहीं । ये चार बातें मान लो तो सब ठीक हो जायगा
। दूसरा दीखता है‒यही बाधा है । दूसरी चीजकी सत्ता स्वीकार करना ही बाधा है । एकान्तमें
बैठकर इसपर गहरा विचार करो । इसपर पूरा जोर लगाओ । फिर बेड़ा पार है !
वह एक ही परमात्मा अनेकरूपसे हो गया‒‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य॰ ६ । २ । ३) । उस एकमें इतनी
अनेकता है कि एक वृक्षके दो पत्ते भी समान नहीं होते । इमलीका वृक्ष बड़ा होता है,
पर उसके पत्ते छोटे होते हैं । उसका एक पत्ता भी दूसरे पत्तेसे
नहीं मिलता ! इमलीके हजारों वृक्षोंके लाखों-करोड़ों पत्ते भी एक समान नहीं होते ! इतना
भेद होते हुए भी इमली एक है ! एकतामें अनेकता और अनेकतामें
एकता‒यह सिद्धान्त है । एक परमात्माकी ही सत्ता है, उसके
सिवाय कुछ है ही नहीं, और वह मेरा है‒ऐसा जब हो जायगा, तब
प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी ।
पहले किये हुए कर्मोंके अनुसार ही जीवका जन्म होता है;
परन्तु उसकी वृत्तियाँ संगसे बनती-बिगड़ती हैं । अच्छे घरमें
जन्म लेनेवाला भी अगर कुसंग करता है तो वह कुसंगके असरसे खराब आदमी हो जाता है । ऐसे
ही खराब घरमें जन्म लेनेपर भी अगर संग अच्छा मिलता है तो वह अच्छा आदमी हो जाता है
। मनुष्य संगसे बनता-बिगड़ता है । स्वभाव संगसे बनता है । विचारका,
पढ़ाईका भी असर पड़ता है,
पर संगका असर विशेष पड़ता है । खराब घरमें जन्म लेनेवाला खराब
और अच्छे घरमें जन्म लेनेवाला अच्छा होता है‒यह नियम नहीं है । इसलिये कुसंगसे बचनेकी
और अच्छे संगमें रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्यक्तुं न शक्यते ।
स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् ॥
(मार्कण्डेयपुराण
३७ । २३)
‘संगका सब प्रकारसे त्याग करना चाहिये; किन्तु यदि उसका त्याग न किया जा सके तो सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषोंका संग ही उसकी ओषधि है ।’
इसलिये अच्छा संग करो,
अच्छी पुस्तकें पढ़ो ।
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