तीन इच्छाएँ होती हैं‒सांसारिक सुखकी इच्छा,
परमात्माके ज्ञानकी इच्छा और परमात्माके प्रेमकी इच्छा । संसारका
सुख नाश करनेवाला, पतन करनेवाला, जन्म-मरण देनेवाला है । ज्ञान और प्रेम‒इन दोनोंमें बहुत आदमी
ज्ञानको ऊँचा मानते हैं, पर मैं प्रेमको ऊँचा मानता हूँ । गीता प्रेमको ऊँचा मानती है
। प्रेम प्राप्त होनेपर फिर कुछ पाना बाकी नहीं रहता । एक बारीक बात है कि तत्त्वज्ञान
होनेपर भी उसमें सूक्ष्म अहंकार रहता है । परन्तु यह अहंकार मुक्तिमें बाधक नहीं होता,
प्रत्युत मतभेद करनेवाला होता है । प्रेम प्राप्त होनेपर मतभेद
नहीं रहता ।
एक प्रेम होता है, एक आसक्ति होती है । प्रेम उद्धार करनेवाला है,
आसक्ति पतन करनेवाली है । परन्तु प्रेम जल्दी समझमें नहीं आता
। लोग स्त्री-पुरुषमें प्रेम मानते हैं, पर
वह महान् आसक्ति है, प्रेम नहीं है । उसमें प्रेमका नामोनिशान ही नहीं
है ! प्रेममें देना-ही-देना होता
है और आसक्तिमें लेना-ही-लेना होता है । आसक्ति अपने सुखके लिये होती है ।
श्रोता‒प्रेममें
रसास्वादन कैसे होता है ?
स्वामीजी‒प्रेममें जब जीव अपनी तरफ देखता है, तब भेद दीखता है और जब भगवान्की तरफ देखता है,
तब अभेद दीखता है । ये दो चीज होनेपर भी अद्वैत मिटता नहीं,
ज्यों-का-त्यों रहता है । वह अपनी तरफ देखता है तो अपनेमें कमी
मानता है, और भगवान्की तरफ देखता है तो चुप हो जाता है । ये दो होनेसे
प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
(बोधसार
भक्ति॰ ४२)
‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहमें डाल सकता है; परन्तु बोध हो जानेपर भक्तिके लिये कल्पित (स्वीकृत) द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर
(सरस) होता है ।’
इस श्लोकमें आये ‘कल्पित’ शब्दकी जगह मैं ‘स्वीकृत’ शब्दको ठीक मानता हूँ ।
श्रोता‒भगवान्
सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार हैं, यह
तो हमारी समझमें आता नहीं । भगवान् जैसे भी हों, हमें
तो यही बात अच्छी लगती है कि भगवान् हैं और वे मेरे हैं । अब यह बात हमारे मनमें दृढ़तासे
बैठ जाय, ऐसा कोई उपाय बतायें
।
स्वामीजी‒भगवान्की कृपासे होगा । आपके बिना पूछे सत्संगमें जो बातें आपने सुनी हैं,
यह भगवान्की आपपर विशेष कृपा है । जिसकी कृपासे ये बातें मिली
हैं, उसीकी कृपासे दृढ़ता होगी, उसीकी कृपासे विश्वास होगा ।
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