अब स्वाभाविक ऐसा विचार आता है कि जगह-जगह जानेसे हमारेको भी
परिश्रम होता है और लोगोंको भी परिश्रम देता हूँ इसलिये एक जगह बैठ जायँ और केवल भगवान्की
बात ही करें । लोग पूछें और उनको मार्मिक बातें बतायें । सुनना-सुनाना बहुत हो गया
। सुनाते हुए कई वर्ष हो गये । बहुत बातें सुनायीं । मैं
चाहता हूँ कि आपका जीवन एकदम बदल जाय । आप सब-के-सब सन्त-महात्मा हो जायँ । घरमें बैठे
ही साधु हो जायँ । ऐसे आप हो जायँ‒यह मेरे हाथकी बात नहीं है,
पर बातें ऐसी मनमें आतीं हैं । मेरे मनमें उत्साह आता है । सत्संगके
विषयमें मेरेको थकावट नहीं होती । शरीर ज्यादा परिश्रम नहीं सह सकता,
पर मनमें उत्साह कम नहीं है ।
आप सच्चे हृदयसे परमात्मामें लग जायँ । आपको केवल इतनी ही बात
जाननेकी जरूरत है कि ‘परमात्मा है’ । परमात्मा कैसा है,
सगुण है कि निर्गुण है,
साकार है कि निराकार है,
द्विभुज है कि चतुर्भुज है या सहस्रभुज है‒यह जाननेकी जरूरत
नहीं, पर वह है जरूर । जो है, उसी
परमात्माका मैं अंश हूँ ।
दो ही बातें हैं‒‘है’
और ‘नहीं’ । परमात्मा ‘है’ और संसार ‘नहीं’ है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः’ (गीता २ । १६) । वह परमात्मा सबका है । वह पुण्यात्मा-से-पुण्यात्माका भी है
और पापी-से-पापीका भी है, ज्ञानी-से-ज्ञानीका भी है और मूर्ख-से-मूर्खका भी है । उसकी
कृपा सबपर बराबर है‒‘सब पर मोहि बराबरि दाया’ (मानस, उत्तर॰ ८७ । ४) । परन्तु उस कृपाको
कोई कम पकड़ता है, कोई ज्यादा पकड़ता है,
कोई नहीं पकड़ता । सूर्य एक है,
पर ठीकरीमें, काँचमें और आतशी शीशेमें उसकी किरणोंका अलग-अलग असर होता है
। एक माँके अनेक बालक होते हैं तो सब बालकोंका स्वभाव तो अलग-अलग होता है,
पर माँ अलग-अलग नहीं होती,
प्रत्युत एक ही होती है । इसी तरह भगवान् सबके हैं ।
भक्ति दो तरहकी होती है‒साधनभक्ति और साध्यभक्ति (प्रेमलक्षणा
भक्ति) । साधनभक्ति नौ प्रकारकी होती है‒
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं
दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । ५ । २३)
‘भगवान्के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण,
उनका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन तथा उनमें दासभाव, सखाभाव और आत्मसमर्पण‒यह नौ प्रकारकी भक्ति है ।’
साधनभक्तिके बाद साध्यभक्ति प्राप्त होती है । साधनभक्तिमें
तो अहंकार रहता है, पर साध्यभक्तिमें अहंकार नहीं रहता । इसलिये साध्यभक्तिमें मतभेद
नहीं होता । परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर सूक्ष्म अहंकार रहता है,
जो जन्म-मरण देनेवाला,
बन्धनकारक तो नहीं होता,
पर मतभेद करनेवाला होता है । द्वैत,
अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि मतभेद बिना अहंकारके नहीं हो सकते । आचार्योंमें तो केवल (राग-द्वेषरहित) मतभेद होता है, पर
उनके अनुयायियोंमें मतभेदके कारण लड़ाई होती है ।
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