परमात्माको ‘है’ माननेमें मतभेद नहीं होता । कारण कि ‘है’ में सब एक हो जाते हैं,
कोई भेद नहीं रहता । वास्तविक सत्ता
एक ही है, जो ‘है’-रूपसे है । वह ‘है’ मेरा
है, संसार मेरा नहीं है‒यह खास बात है । मेरी आप सब भाई-बहनोंसे
प्रार्थना है कि उस ‘है’ में स्थित हो जायँ ।
हमारा स्वरूप भी ‘है’‒रूप ही है; क्योंकि हम उस ‘है’ के ही अंश हैं । अंश और अंशी एक ही होते हैं,
दो नहीं होते । जैसे घटाकाश और मठाकाशमें भेद नहीं होता (घड़ा
और मकान तो अलग-अलग हैं, पर उनमें स्थित आकाश एक ही है),
ऐसे ही ‘है’ में भेद नहीं होता । उसमें आप स्थित हो जाओ,
यह बहुत उत्तम चीज है !
‘अहं
ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह अहंकार है । यह तत्त्व नहीं है,
प्रत्युत उपासना है ।
अगर आप ध्यान करना चाहें तो एकान्तमें बैठ जायँ और ऐसा ध्यान
करें कि ‘एक परमात्मा है; यह संसार नहीं है’ । उस ‘है’‒में स्थित हो जायँ । इससे शान्ति मिलेगी । दुःख मिट जायगा ।
वास्तवमें उस ‘है’ में आपकी स्थिति स्वतः है । संसारका तो हरदम त्याग हो रहा है
। यह कोई नयी बात नहीं है । आप अपनेको देखो तो आप वही हो,
जो बालकपनमें थे, पर शरीर वह नहीं है,
जो बालकपनमें था । शरीर तो हरदम बदलता है,
पर आप कभी बदलते नहीं । उस कभी न बदलनेवाली सत्तामें आप स्थित
रहो । अगर ऐसा आपसे नहीं हो सके तो मन जहाँ-जहाँ जाय,
वहाँ-वहाँसे हटाकर उसे ‘है’ में लगाओ । स्फुरणाओंको हटानेके लिये पहले श्वास और आँखकी दो
क्रियाएँ बतायी थीं, अब दूसरा सुगम उपाय बताता हूँ । जब भी कोई स्फुरणा आये तो जीभ
हिलाकर ‘ना’ कहो । ऐसा करते ही स्फुरणा कट जायगी । कितना सुगम उपाय है !
जैसे, सत्संगमें किसी आदमीको नींद आती हो तो उसके सामने जीभ हिलाते
हुए ‘ना’ कहो तो उसकी नींद उड़ जायगी ! बालक रोता हो तो उसके सामने जीभ
और अँगुली हिलाते हुए ‘ना’ इशारा करो तो वह चुप हो जायगा ।
श्रोता‒जिस समय कीर्तन होता है, उस समय आप भगवान्को प्रकट कर दें तो हम सब दर्शन कर लें !
स्वामीजी‒मैं अपनेमें ऐसी ताकत नहीं मानता । मैं ऐसी शक्ति ही नहीं मानता कि भगवान्को
प्रकट कर दूँ । जसीडीहकी बात है । सेठ श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सामने भगवान् प्रकट
हुए । पूरी संख्या मेरेको याद नहीं है, शायद पन्द्रह-बीस आदमी मौजूद थे । सेठजीने भगवान्से प्रार्थना
की कि आप सबको दर्शन दे दो । भगवान्ने उत्तर दिया कि ‘सब दर्शन चाहते नहीं,
कैसे दे दूँ ! जयदयाल कहे तो दर्शन दे दूँ !’
सेठजीने कहा कि मैं क्यों कहूँ
? जिनको गरज नहीं है,
उनको दर्शन देनेके लिये मैं क्यों कहूँ
? मैं तो यह कहता हूँ कि हम कीर्तन
कर सकते हैं !
जब दर्शन देनेकी शक्ति रखनेवाले भी ऐसा कहते हैं,
फिर मेरेमें तो मैं ऐसी शक्ति ही नहीं मानता कि भगवान्को प्रकट
कर दूँ !
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