भगवान्के सिवाय कोई अपना नहीं है । वे सदा हमारे साथ रहनेवाले
हैं । अपना वही होता है, जो
कभी बिछुड़ता नहीं । जो मिलता है और बिछुड़ जाता है, वह
अपना नहीं होता । भगवान्को अपना
मान लो तो जरूर प्रेम हो जायगा; क्योंकि ‘प्रेम’
भजन,
ध्यान,
जप,
त्याग,
तपस्या आदिसे नहीं होता, प्रत्युत
अपनेपनसे होता है । अपनी फटी
जूती, फटा कपड़ा भी अच्छा लगता है । माँको काला-कलूटा बालक भी अपना
अच्छा लगता है ।
भगवान् कहते हैं‒‘समोऽहं सर्वभूतेषु
न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः’
(गीता ९ । २९) ‘मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ । न तो कोई
मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है ।’ पापी-से-पापी भी भगवान्को अप्रिय नहीं है । भगवान् उसका भी हित करनेवाले हैं;
क्योंकि वे प्राणिमात्रके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता
५ । २९) । वे दुनियामात्रका
पालन करते हैं ।
भगवान् ब्रह्मारूपसे सबको उत्पन्न करते हैं,
विष्णुरूपसे सबका पालन करते हैं,
और शिवरूपसे सबका संहार करते हैं । आप परिवार-नियोजन करते हैं
तो यह बड़ा भारी अन्याय है ! बड़ा भारी पाप है ! इसका नतीजा आपके लिये बड़ा भयंकर होगा
! यह महान् कलियुगकी लीला है ! परिवार-नियोजन करनेवाले कलियुगके चेले हैं,
कलियुगके एजेण्ट हैं,
कलियुगके बेटा-बेटी हैं ! इस अन्यायके फलस्वरूप आपको दुःख पाना
ही पड़ेगा, बच सकते नहीं ! इस महान् पापसे बचो और दूसरोंको बचाओ ।
परमात्मप्राप्तिके अनेक रास्ते हैं । पर सबसे बढ़िया रास्ता है‒भगवान्की
शरणागति । इसको गीतामें भगवान्ने ‘सर्वगुह्यतमम्’
(सबसे अत्यन्त गोपनीय) साधन
बताया है (गीता १८ । ६४) । यह शरणागति तब सिद्ध होती है, जब
आप यह मान लेते हैं कि हम संसारके नहीं हैं । यह आपके अधीन है, दूसरेके अधीन नहीं । भगवान्के शरण होनेपर संसारका काम इतना
बढ़िया होगा कि कह नहीं सकते ! बहुत बढ़िया,
सुचारुरूपसे काम होगा । कोई कमी नहीं आयेगी । आपका कल्याण भी
हो जायगा, इसमें कोई सन्देह नहीं ! केवल यह भाव बदलना है कि हम यहाँके
नहीं हैं, हम भगवान्के हैं ।
कई आदमियोंको ऐसा वहम है कि परमात्माकी तरफ चलेंगे तो घरका काम
बिगड़ जायगा । परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता । संसारका काम तो
संसारमें घुलने-मिलनेसे बिगड़ता है, पर
भगवान्का काम भगवान्में नहीं घुलने-मिलनेसे बिगड़ता है । संसारके साथ घुल-मिलकर आप
संसारको नहीं जान सकते, और परमात्मासे घुले-मिले बिना आप परमात्माको नहीं
जान सकते‒यह अकाट्य नियम है । इसे याद कर लो । कारण कि आप सदासे ही परमात्माके
हो, संसारके नहीं हो । परमात्मासे घुल-मिल जाओगे तो संसारका बन्धन तो छूट जायगा,
पर काम-धन्धा बढ़िया,
सुचारुरूपसे होगा । एक बारीक बात है कि केवल कर्तव्य समझकर संसारका काम किया जाय तो काम बढ़िया होता है
और बन्धन भी नहीं होता ।
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