।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७५, रविवार
शरणागति
                                                             

च्‍चे हृदयसे प्रभुके चरणोंकी शरण होनेपर उस शरणागत भक्तमें यदि किसी भाव, आचरण आदिकी किंचित कमी रह जाय, वक्तपर विपरीत वृत्ति पैदा हो जाय अथवा किसी परिस्थितिमें पड़कर परवशतासे कभी किंचित कोई दुष्कर्म हो जाय, तो उसके हृदयमें जलन पैदा हो जायगी । इस वास्ते उसके लिये अन्य कोई प्रायश्चित करनेकी आवश्यकता नहीं है । भगवान्‌ कृपा करके उसके उस पापको सर्वथा नष्ट कर देते हैं[1]

भगवान्‌ भक्तके अपनेपनको ही देखतें हैं, गुणों और अवगुणोंको नहीं[2] अर्थात् भगवान्‌को भक्तके दोष दीखते ही नहीं, उनको तो केवल भक्तके साथ जो अपनापन है, वही दीखता है । कारण कि स्वरूपसे भक्त सदासे ही भगवान्‌का है । दोष आगन्तुक होनेसे आते-जाते रहते हैं और वह नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों ही रहता है । इस वास्ते भगवान्‌की दृष्टि इस वास्तविकतापर ही सदा जमी रहती है । जैसे, कीचड़ आदिसे सना हुआ बच्‍चा जब माँके सामने आता है तो माँकी दृष्टि केवल अपने बच्‍चेकी तरफ ही जाती है, बच्‍चेके मैलेकी तरफ नहीं जाती । बच्‍चेकी दृष्टि भी मैलेकी तरफ नहीं जाती । माँ साफ करे या न करे, पर बच्‍चेकी दृष्टिमें तो मैला है ही नहीं, उसकी दृष्टिमें तो केवल माँ ही है । द्रौपदीके मनमें कितना द्वेष और क्रोध भरा हुआ था कि जब दुःशाशनके खूनसे अपने केश धोउँगी, तभी केश बाँधूँगी ! परन्तु द्रौपदी जब भी भगवान्‌को पुकारती है, भगवान्‌ चट आ जाते हैं; क्योंकि भगवान्‌के साथ द्रौपदीका गाढ़ अपनापन था ।

भगवान्‌के साथ अपनापन होनेमें दो भाव रहते हैं(१) भगवान्‌ मेरे हैं और (२) मैं भगवान्‌का हूँ । इन दोनोंमें ही भगवान्‌का सम्बन्ध समान रीतिसे रहते हुए भी ‘भगवान्‌ मेरे हैं’इस भावमें भगवान्‌से अपनी अनुकूलताकी इच्छा हो सकती है कि भगवान्‌ मेरे हैं तो मेरी इच्छाकी पूर्ति क्यों नहीं करते ? और ‘मैं भगवान्‌का हूँ’ इस भावमें भगवान्‌से अपनी अनुकूलताकी इच्छा नहीं हो सकती; क्योंकि मैं भगवान्‌का हूँ तो भगवान्‌ मेरे लिये जैसा ठीक समझें, वैसा ही निःसंकोच होकर करें । इस वास्ते साधकको चाहिये कि वह भगवान्‌की मर्जीमें सर्वथा अपनी मर्जी मिला दे; भगवान्‌पर अपना किंचित भी आधिपत्य न माने, प्रत्युत अपनेपर उनका पूरा आधिपत्य माने । कहीं भी भगवान्‌ हमारे मनकी करें तो उसमें संकोच हो कि मेरे लिये भगवान्‌को ऐसा करना पड़ा ! यदि अपने मनकी बात पूरी होनेसे संकोच नहीं होता, प्रत्युत सन्तोष होता है तो यह शरणागति नहीं है । शरणागत भक्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिके प्रतिकूल परिस्थितिमें भी भगवान्‌की मर्जी समझकर प्रसन्न रहता है ।



     [1] स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य त्यक्त्वान्यभावस्य हरिः परेशः ।
विकर्म यच्‍चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोती सर्वं हृदि संनिविष्टः ॥
                                                            (श्रीमद्भागवत ११/५/४२)

‘जो प्रेमी भक्त भगवान्‌के चरणोंका अनन्यभावसे भजन करता है, उसके द्वारा यदि अकस्मात् कोई पाप-कर्म बन भी जाय तो उसके हृदयमें बिराजमान परमपुरुष भगवान्‌ श्रीहरि उसे सर्वथा नष्ट कर देते हैं ।’

[2] रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
                                                                      (मानस १/२९/३)