।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७५, सोमवार
शरणागति
                                                             


शरणागत भक्तको अपने लिये कभी किंचिन्मात्र भी कुछ करना शेष नहीं रहता; क्योंकि उसने सम्पूर्ण ममतावाली वस्तुओंसहित अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित कर दिया, जो वास्तवमें प्रभुका ही था । अब करने, कराने आदिका सब काम भगवान्‌का ही रह गया । ऐसी अवस्थामें वह कठीन-से-कठीन और भयंकर-से-भयंकर घटना, परिस्थितिमें भी अपनेपर प्रभुकी महान् कृपा मानकर सदा प्रसन्न रहता है, मस्त रहता है । जैसे, गरुड़जीके पूछनेपर काकभुशुण्डिजीने अपने पूर्वजन्मके ब्राह्मण-शरीरकी कथा सुनायी, जिसमें लोमश ऋषिने शाप देकर उन्हें (ब्राह्मणको) पक्षियोंमें नीच चाण्डाल पक्षी (कौआ) बना दिया; परन्तु काकभुशुण्डिजीके मनमें न कुछ भय हुआ और न कुछ दीनता ही आयी ! उन्होंने उसमें भगवान्‌का शुद्ध विधान ही समझा । केवल समझा ही नहीं, प्रत्युत मन-ही-मन बोल उठे‘उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन’ (मानस ७/११३/१) । ऐसा भयंकर शाप मिलनेपर भी जब काकभुशुण्डिजीकी प्रसन्नतामें कोई कमी नहीं आयी, तब लोमश ऋषिने उनको भगवान्‌का प्यारा भक्त समझकर अपने पास बुलाया और बालक रामजीका ध्यान बताया । फिर भगवान्‌की कथा सुनायी और अत्यन्त प्रसन्न होकर काकभुशुण्डिजीके सिरपर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया‘मेरी कृपासे तुम्हारे हृदयमें अबाध, अखण्ड रामभक्ति रहेगी । तुम रामाजीको प्यारे हो जाओगे । तुम सम्पूर्ण गुणोंकी खान बन जाओगे । जिस रूपकी इच्छा करोगे, वह रूप धारण कर लोगे । जिस स्थानपर तुम रहोगे, उसमें एक योजनपर्यन्त मायाका कण्टक किंचिन्मात्र भी नहीं आयेगा’ आदि-आदि । इस प्रकार बहुत-से आशीर्वाद देते ही आकाशवाणी होती है कि ‘हे ऋषे ! तुमने जो कुछ कहा, वह सब सच्‍चा होगा; यह मन, वाणी, कर्मसे मेरा भक्त है ।’ इन्ही बातोंको लेकर भगवान्‌के विधानमें सदा प्रसन्न रहनेवाले काकभुशुण्डिजीने कहा है

भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्ही महारिषि साप ।
मुनि  दुर्लभ   बर   पायउँ    देखहु  भजन  प्रताप ॥
                                                           (मानस ७/११४ ख)

यहाँ ‘भजन प्रताप’ शब्दोंका अर्थ हैभगवान्‌के विधानमें हर समय प्रसन्न रहना । विपरीत-से-विपरीत अवस्थामें भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ती रहती है; क्योंकि प्रेमका स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है ।

यह नियम है कि जो चीज अपनी होती है, वह सदैव अपनेको प्यारी लगती है । भगवान्‌ सम्पूर्ण जीवोंको अपना प्रिय मानते हैं‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस ७/८६/२) और इस जीवको भी प्रभु स्वतः ही प्रिय लगते हैं । हाँ, यह बात दूसरी है कि यह जीव परिवर्तनशील संसार और शरीरको भूलसे अपना मानकर अपने प्यारे प्रभुसे विमुख हो जाता है । इसके विमुख होनेपर भी भगवान्‌ने अपनी तरफसे किसी भी जीवका त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं । कारण कि जीव सदासे साक्षात् भगवान्‌का ही अंश है । इस वास्ते सम्पूर्ण जीवोंके साथ भगवान्‌की आत्मीयता अक्षुण्ण, अखण्डितरूपसे स्वाभाविक ही बनी हुई है । इसीसे वे मात्र जीवोंपर कृपा करनेके लिये अर्थात् भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापनाइन तीनों बातोंके लिये वक्त-वक्तपर अवतार लेते हैं[1] इन तीनों बातोंमें केवल भगवान्‌की आत्मीयता ही टपक रही है, नहीं तो भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापनासे भगवान्‌का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । भगवान्‌ तो ये तीनों ही काम केवल प्राणिमात्रके कल्याणके लिये ही करते हैं । इससे भी प्राणिमात्रके साथ भगवान्‌की स्वाभाविक आत्मीयता, कृपालुता, प्रियता, हितैषिता, सुहृत्ता और निरपेक्ष उदारता ही सिद्ध होती है और यहाँ भी इसी दृष्टिसे अर्जुनसे कहते है‘मद्भक्तो भव, मन्मना भव, मद्याजी भव, मां नमस्कुरु’ । इन चारों बातोंमें भगवान्‌का तात्पर्य केवल जीवको अपने सम्मुख करानेमें ही है, जिससे सम्पूर्ण जीव असत् पदार्थोंसे विमुख हो जायँ; क्योंकि दुःख, संताप, बार-बार जन्मना-मरना, मात्र विपत्ति आदिमें मुख्य हेतु भगवान्‌से विमुख होना ही है ।



[1] परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
   धर्मसंस्थापनार्थाय   सम्भवामि  युगे   युगे ॥
                                                                 (गीता ४/८)