।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७५, मंगलवार
शरणागति
                                                             

भगवान्‌ जो कुछ भी विधान करते हैं, वह संसारमात्रके सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करते हैंबस, भगवान्‌की इस कृपाकी तरफ प्राणीकी दृष्टि हो जाय तो फिर उसके लिये क्या करना बाकी रहा ? प्राणियोंके हितके लिये भगवान्‌के हृदयमें एक तडफ़न है, इसी वास्ते भगवान्‌ ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ वाली अत्यन्त गोपनीय बात कह देते हैं । कारण कि भगवान्‌ जीवमात्रको अपना मित्र मानते हैं‘सुहृदं सर्वभूतानां’ (५/२९) और उन्हें यह स्वतन्त्रता देते हैं कि वे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं, उनमेंसे कीसी भी साधनके द्वारा सुगमतापूर्वक मेरी प्राप्ति कर सकते हैं और दुःख, संताप, आदिको सदाके लिये समूल नष्ट कर सकते हैं ।

वास्तवमें जीवका उद्धार केवल भगवत्कृपासे ही होता है । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, अष्टांगयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, मन्त्रयोग आदि जितने भी साधन हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌के द्वारा और भगवत्तत्त्व जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा ही प्रकट किये गये हैं[1] । इस वास्ते इन सब साधनोंमें भगवत्कृपा ही ओतप्रोत है । साधन करनेमें तो साधक निमित्तमात्र होता है, पर साधनकी सिद्धिमें भगवत्कृपा ही मुख्य है ।

शरणागत भक्तको तो ऐसी चिन्ता भी कभी नहीं करनी चाहिये कि अभी भगवान्‌के दर्शन नहीं हुए, भगवान्‌के चरणोंमें प्रेम नहीं हुआ, अभी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं आदि  । इस प्रकारकी चिंताएँ करना मानो बंदरीका बच्‍चा बनना है । बंदरीक बच्‍चा स्वयं ही बंदरीको पकड़े रहता है । बंदरी कूदे-फाँदे, किधर भी जाय, बच्‍चा स्वयं ही बंदरीसे कहीं भी चिपक जाता है ।

भक्तको तो अपनी सब चिन्ताएँ भगवान्‌पर ही छोड़ देनी चाहिये अर्थात् भगवान्‌ दर्शन दें या न दें, प्रेम दें या न दें, वृत्तियोंको ठीक करें या न करें, हमें शुद्ध बनायें या न बनायें—यह सब भगवान्‌की मर्जीपर छोड़ देना चाहिये । उसे तो बिल्लीका बच्‍चा बनाना चाहिये । बिल्लीका बच्‍चा अपनी माँपर निर्भर रहता है । बिल्ली चाहे जहाँ रखे, चाहे जहाँ ले जाय । बिल्ली अपनी मर्जीसे बच्‍चेको उठकर ले जाती है तो वह पैर समेट लेता है । ऐसे ही शरणागत भक्त संसारकी तरफसे अपने हाथ-पैर समेटकर[2] केवल भगवान्‌का चिन्तन, नाम-जप आदि करते हुए भगवान्‌की तरफ ही देखता रहता है । भगवान्‌का जो विधान है, उसमें परम प्रसन्न रहता है, अपने मनकी कुछ भी नहीं लगाता ।

जैसे कुम्हार पहले मिट्टीको सिरपर उठाकर लाता है तो कुम्हारकी मर्जी, फिर चक्‍केपर चढ़ाकर घुमाता है तो कुम्हाराकी मर्जी । मिट्टी कभी कुछ नहीं कहती कि तुम घड़ा बनाओ, सकोरा बनाओ, मटकी बनाओ । कुम्हार चाहे जो बनाये, उसकी मर्जी है । ऐसे ही शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मर्जी, मनकी बात नहीं रखता । वह जितना अधिक निश्चिन्त और निर्भय होता है, भगवत्कृपा उसको अपने-आप उतना ही अधिक अपने अनुकूल बना लेती है और जितनी वह चिन्ता करता है, अपना बल मानता है, उतना ही वह आती हुई भगवत्कृपामें बाधा लगाता है अर्थात् शरणागत होनेपर भगवान्‌की ओरसे जो विलक्षण, विचित्र, अखण्ड, अटूट कृपा आती है, अपनी चिन्ता करनेसे उस कृपामें बाधा लग जाती है ।



[1] हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
                                                                       (मानस ७/४७/३)

[2] भक्त जो कुछ काम करता है, उसको भगवान्‌का ही समझकर, भगवान्‌की ही शक्ति मानकर, भगवान्‌के ही लिये करता है, अपने लिये किंचिन्मात्र भी नहीं करता—यही उसका हाथ-पैर समेटना है ।