।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७५, बुधवार
शरणागति

                     
                           

जैसे, धीवर (मछुआ) मछलियोंको पकड़नेके लिये नदीमें जाल डालता है तो जालके भीतर आनेवाली सब मछलियाँ पकड़ी जाती हैं; परन्तु जो मछली जाल डालनेवाले मछुएके चरणोंके पास आ जाती है, वह नहीं पकड़ी जाती । ऐसे ही भगवान्‌की माया (संसार) में ममता करके जीव फँस जाते हैं और जन्मते-मरते रहते हैं; परन्तु जो जीव मायापति भगवान्‌के चरणोंकी शरण हो जाते हैं, वे मायाको तर जाते हैं‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७/१४) । इस द्रष्टान्तका एक ही अंश ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि धीवरका तो मछलियोंको पकड़नेका भाव होता है; परन्तु भगवान्‌का भाव तो जीवोंको मायाजालसे मुक्त करके अपने शरण लेनेका होता है, तभी तो वे कहते हैं‘मामेकं शरणं व्रज’ । जीव संयोगजन्य सुखकी लोलुपतासे खुद ही मायामें फँस जाते हैं ।

जैसे, चलती हुई चक्‍कीके भीतर आनेवाले सभी दाने पिस जाते हैं; परन्तु जिसके आधारपर चक्‍की चलती है, उस कीलके आस-पास रहनेवाले दाने ज्यों-के-त्यों साबूत रह जाते हैं । ऐसे ही जन्म-मरणरूप संसारकी चलती हुई चक्‍कीमें पड़े हुए सब-के-सब जीव पिस जाते हैं अर्थात् दुःख पाते हैं; परन्तु जिसके आधारपर संसार-चक्र चलता है, उन भगवान्‌के चरणोंका सहारा लेनेवाला जीव पिसनेसे बच जाता है‘कोई हरिजन ऊबरे, कील माकड़ी पास ।’ यह दृष्टान्त भी पूरा नहीं घटता; क्योंकि दाने तो स्वाभाविक ही कीलके पास रह जाते हैं । वे बचनेका कोई उपाय नहीं करते । परन्तु भगवान्‌के भक्त संसारसे विमुख होकर प्रभुके चरणोंका आश्रय लेते हैं । तात्पर्य यह कि जो भगवान्‌का अंश होकर भी संसारको अपना मानता है अथवा संसारसे कुछ चाहता है, वही जन्म-मरणरूप चक्रमें पड़कर दुःख भोगता है ।

संसार और भगवान्‌इन दोनोंका सम्बन्ध दो तरहका होता है । संसारका सम्बन्ध केवल माना हुआ है और भगवान्‌का सम्बन्ध वास्तविक है । संसारका सम्बन्ध तो मनुष्यको पराधीन बनाता है, गुलाम बनाता है, पर भगवान्‌का सम्बन्ध मनुष्यको स्वाधीन बनाता है, चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान्‌का भी मालिक !

किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी अपनी विशेषता दीखती है, वही वास्तवमें पराधीनता है । यदि मनुष्य विद्या, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, त्याग, वैराग्य आदि किसी बातको लेकर अपनेमें विशेषता मानता है तो यह उन विद्या आदिकी पराधीनता, दासता ही है । जैसे, कोई धनको लेकर अपनेमें विशेषता मानता है तो यह विशेषता धनकी ही हुई, खुदकी नहीं । वह अपनेको धनका मालिक मानता है, पर वास्तवमें वह धनका गुलाम है ।

संसारका यह कायदा है कि सांसारिक पदार्थोंको लेकर जो अपनेमें कुछ विशेषता मानता है, उसको ये सांसारिक पदार्थ तुच्छ बना देते हैं, पद-दलित कर देते हैं । परन्तु जो भगवान्‌के आश्रित होकर सदा भगवान्‌पर ही निर्भर रहते हैं, उनको अपनी कुछ विशेषता दीखती ही नहीं, प्रत्युत भगवान्‌की ही अलौकिकता, विलक्षणता, विचित्रता दीखती है । भगवान्‌ चाहे उसको अपना मुकुटमणि बना लें और चाहे मालिक बना लें , तो भी उसको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती । प्रभुका यह कायदा है कि जिस भक्तको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती, अपनेमें किसी बातका अभिमान नहीं होता, उस भक्तमें भगवान्‌की विलक्षणता उतर आती है । किसी-किसीमें यहाँतक विलक्षणता आती है कि उसके शरीर, मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ भी चिन्मय बन जाते हैं । उनमें जड़ताका अत्यन्त अभाव हो जाता है । ऐसे भगवान्‌के प्रेमी भक्त भगवान्‌में ही समा गये हैं, अन्तमें उनके शरीर नहीं मिले । जैसे, मीराबाई शरीरसहित भगवान्‌के श्रीविग्रहमें लीन हो गयीं । केवल पहचानके लिये उनकी साड़ीका छोटा-सा छोर श्रीविग्रहके मुखमें रह गया और कुछ नहीं बचा । ऐसे ही सन्त श्रीतुकारामजी शरीरसहित वैकुण्ठ चले गये ।