।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७५, गुरुवार
शरणागति

                     
                           

ज्ञानमार्गमें शरीर चिन्मय नहीं होता; क्योंकि ज्ञानी असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद करके, असत्‌से अलग होकर स्वयं चिन्मय तत्त्वमें स्थित हो जाता है । परन्तु जब भक्त भगवान्‌के सम्मुख होता है तो उसके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण आदि सभी भगवान्‌के सम्मुख हो जाते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि जिनकी दृष्टि केवल चिन्मय तत्त्वपर ही है अर्थात् जिनकी दृष्टिमें चिन्मय तत्त्वसे भिन्न जड़ताकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं होती तो वह चिन्मयता उनके शरीर आदिमें भी उतर आती है और वे शरीर आदि चिन्मय हो जाते हैं । हाँ, लोगोंकी दृष्टिमें तो उनके शरीरमें जड़ता दीखती है, पर वास्तवमें उनके शरीर चिन्मय होते हैं ।

भगवान्‌के सर्वथा शरण हो जानेपर शरणागतके लिये भगवान्‌की कृपा विशेषतासे प्रकट होती ही है, पर मात्र संसारका स्नेहपूर्वक पालन करनेवाली और भगवान्‌से अभिन्न रहनेवाली वात्सल्यमयी माता लक्ष्मीका प्रभु-शरणागतपर कितना अधिक स्नेह होता है, वे कितना प्यार करती हैं, इसका कोई भी वर्णन नहीं कर सकता । लौकिक व्यवहारमें भी देखनेमें आता है कि पतिव्रता स्त्रीको पितृभक्त पुत्र बहुत प्यारा लगता है ।

दूसरी बात, प्रेमभावसे परिपूरित प्रभु जब अपने भक्तको देखनेके लिये गरुड़पर बैठकर पधारते हैं तो माता लक्ष्मी भी प्रभुके साथ गरुड़पर बैठकर आती हैं, जिस गरुड़की पाँखोंसे सामवेदके मन्त्रोंका गान होता रहता है ! परन्तु कोई भगवान्‌को न चाहकर केवल माता लक्ष्मीको ही चाहता है तो उसके स्नेहके कारण माता लक्ष्मी आ भी जाती हैं, पर उनका वाहन दिवान्ध उल्लू होता है । ऐसे वाहनवाली लक्ष्मीको प्राप्त करके मनुष्य भी मदान्ध हो जाता है । अगर उस माँको कोई भोग्या समझ लेता है तो उसका बड़ा भारी पतन हो जाता है; क्योंकि वह तो अपनी माँको ही कुदृष्टिसे देखता है, इस वास्ते वह महान् अधम है ।

तीसरी बात, जहाँ केवल भगवान्‌का प्रेम होता है, वहाँ तो भगवान्‌से अभिन्न रहनेवाली लक्ष्मी भगवान्‌के साथ आ ही जाती है, पर जहाँ केवल लक्ष्मीकी चाहना है, वहाँ लक्ष्मीके साथ भगवान्‌ भी आ जायँयह नियम नहीं है ।

शरणागतिके विषयमें एक कथा आती है । सीताजी, रामजी और हनुमानजी जंगलमें एक वृक्षके नीचे बैठे थे । उस वृक्षकी शाखाओं और टहनियोंपर एक लता छायी हुई थी । लताके कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे । उन तन्तुओंमें कहींपर नयी-नयी कोंपलें निकल रही थीं और कहींपर ताम्रवर्णके पत्ते निकल रहे थे । पुष्प और पत्तोंसे लता छायी हुई थी । उससे वृक्षकी सुन्दर शोभा हो रही थी । वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था । उस वृक्षकी शोभाको देखकर भगवान्‌ श्रीराम हनुमानजीसे बोले‘देखो हनुमान्  ! यह लता कितनी सुन्दर है ! वृक्षके चारों ओर कैसी छायी हुई है ! यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल और हरी-हरी पत्तियोंसे इस वृक्षकी कैसी शोभा बढ़ा रही है । इससे जंगलके अन्य सब वृक्षोंसे यह वृक्ष कितना सुन्दर दीख रहा है ! इतना ही नहीं, इस वृक्षके कारण ही सारे जंगलकी शोभा हो रही है । इस लताके कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्षका आश्रय लेते हैं । धन्य है यह लता !’

भगवान्‌ श्रीरामके मुखसे लताकी प्रशंसा सुनकर सीताजी हनुमानजीसे बोलीं‘देखो बेटा हनुमान् ! तुमने खयाल किया कि नहीं ? इस लताका ऊपर चढ़ जाना, फूल-पत्तोंसे छा जाना, तन्तुओंका फैल जानाये सब वृक्षके आश्रित हैं, वृक्षके कारण ही हैं । इस लताकी शोभा भी वृक्षके ही कारण है । इस वास्ते मूलमें महिमा तो वृक्षकी ही है । आधार तो वृक्ष ही है । वृक्षके सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है ? कैसे छा सकती है ? अब बोलो हनुमान् ! तुम्हीं बताओ, महिमा वृक्षकी ही हुई न ?’

रामजीने कहा‘क्यों हनुमान् ! यह महिमा तो लताकी ही हुई न ?’

हनुमानजी बोले‘हमें तो तीसरी बात सूझती है ।’

सीताजीने पूछा‘वह क्या है बेटा ?’

हनुमानजीने कहामाँ ! वृक्ष और लताकी छाया बड़ी सुन्दर है । इस वास्ते हमें तो इन दोनोंकी छायामें रहना ही अच्छा लगता है, अर्थात् हमें तो आप दोनोंकी छाया (चरणोंका आश्रय) में रहना ही अच्छा लगता है ।’

सेवक सुत पति मातु भरोसें ।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥
                          (मानस ४/३/२)

ऐसे ही भगवान्‌ और उनकी दिव्य ह्लादिनी शक्तिदोनों ही एक-दूसरेकी शोभा बढ़ाते हैं । परन्तु कोई तो उन दोनोंको श्रेष्ठ बताता है, कोई केवल भगवान्‌को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी ह्लादिनी शक्तिको श्रेष्ठ बताता है । शरणागत भक्तके लिये तो प्रभु और उनकी ह्लादिनी शक्तिदोनोंका आश्रय ही श्रेष्ठ है ।