।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
शरणागति

                     
                           

एक बार एक प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) सन्त हाथमें लाठी पकड़े आगराके लिये यमुना किनारे-किनारे चले जा रहे थे । नदीमें बाढ़ आयी हुई थी । उससे एक जगह यमुनाका किनारा पानीमें गिर पड़ा तो बाबाजी भी पानीमें गिर पड़े । हाथसे लाठी छूट गयी थी । दीखता तो था नहीं, अब तैरें तो किधर तैरें ? भगवान्‌की शरणागतिकी बात याद आते ही प्रयासरहित होकर शरीर ढीला छोड़ दिया तो उनको ऐसा लगा कि किसीने हाथ पकड़कर किनारेपर डाल दिया । वहाँ दूसरी कोई लाठी हाथमें आ गयी और उसके सहारे वे चल पड़े । तात्पर्य है कि जो भगवान्‌के शरण होकर भगवान्‌पर निर्भर रहता है, उसको अपने लिये करना कुछ नहीं रहता । भगवान्‌के विधानसे जो हो जाय, उसीमें प्रसन्न रहता है ।

बहुत-सी भेड़-बकरियाँ जंगलमें चरने गयीं । उनमेंसे एक बकरी चरते-चरते एक लतामें उलझ गयी । उसको उस लतामेंसे निकलनेमें बहुत देर लगी, तबतक अन्य सब भेड़-बकरियाँ अपने घर पहुँच गयीं । अँधेरा भी हो रहा था । वह बकरी घूमते-घूमते एक सरोवरके किनारे पहुँची । वहाँ किनारेकी गीली जमीनपर सिंहका एक चरण-चिह्न मँढा हुआ था । वह उस चरण-चिह्नके शरण होकर उसके पास बैठ गयी । रातमें जंगली सियार, भेड़िया, बाघ आदि प्राणी बकरीको खानेके लिये पासमें जाते हैं तो वह बकरी बता देती है‘पहले देख लेना कि मैं किसकी शरणमें हूँ; तब मुझे खाना !’ वे चिह्नको देखकर कहते हैं‘अरे, यह तो सिंहके चरण-चिह्नके शरण है, जल्दी भागो यहाँसे ! सिंह आ जायगा तो हमको मार डालेगा ।’ इस प्रकार सभी प्राणी भयभीत होकर भाग जातें हैं । अन्तमें जिसका चरण-चिह्न था, वह सिंह स्वयं आया और बकरीसे बोला‘तू जंगलमें अकेली कैसे बैठी है ?’ बकरिने कहा‘यह चरण-चिह्न देख लेना, फिर बात करना । जिसका यह चरण-चिह्न है, उसीके मैं शरण हुई बैठी हूँ ।’ सिंहने देखा, ‘ओह ! यह तो मेरा ही चरण-चिह्न है, यह बकरी तो मेरे ही शरण हुई !’ सिंहने बकरीको आश्वासन दिया कि अब तुम डरो मत, निर्भय होकर रहो ।

रातमें जब जल पीनेके लिये हाथी आया तो सिंहने हाथीसे कहा‘तू इस बकरीको अपनी पीठपर चढ़ा ले । इसको जंगलमें चराकर लाया कर और हरदम अपनी पीठपर ही रखा कर, नहीं तो तू जानता नहीं, मैं कौन हूँ ? मार डालूँगा !’ सिंहकी बात सुनकर हाथी थर-थर काँपने लगा । उसने अपनी सूँड़से झट बकरीको पीठपर चढ़ा लिया । अब वह बकरी निर्भय होकर हाथीकी पीठपर बैठे-बैठे ही वृक्षोंकी ऊपरकी कोंपलें खाया करती और मस्त रहती ।

खोज पकड़  सैंठे  रहो,  धणी  मिलेंगे  आय ।
अजया गज मस्तक चढ़े, निर्भय कोंपल खाय ॥

ऐसे ही जब मनुष्य भगवान्‌के शरण हो जाता है, उनके चरणोंका सहारा ले लेता है तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंसे, विघ्न-बाधाओंसे निर्भय हो जाता है । उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता, कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।

जो जाको शरणो गहै,  वाकहँ  ताकी  लाज ।
उलटे जल मछली चले, बह्यो जात गजराज ॥

भगवान्‌के साथ काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्‍नेह आदिसे भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय, वह भी जीवका कल्याण करनेवाला ही होता है । तात्पर्य यह हुआ कि काम, क्रोध, द्वेष आदि किसी तरहसे भी जिनका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ गया, उनका तो उद्धार हो ही गया, पर जिन्होंने किसी तरहसे भी भगवान्‌के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा, उदासीन ही रहे, वे भगवत्प्राप्तिसे वंचित रह गये !

भगवान्‌के अनन्य भक्तोंके लिये नारदजीने कहा है

नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।
                                               (नारदभक्तिसूत्र ७२)

‘उन भक्तोंमें जाती, विद्या, रूप, कुल धन, क्रिया आदिका भेद नहीं है ।’

तात्पर्य यह कि जो सर्वथा भगवान्‌के अर्पित हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने भगवान्‌के साथ आत्मीयता, परायणता, अनन्यता आदि वास्तविकताको स्वीकार कर लिया है तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरको लेकर सांसारिक जितने भी जाति, विद्या आदि भेद हो सकते हैं, वे सब उनपर लागू नहीं होते । कारण कि वे अच्युत भगवान्‌के ही हैं‘यतस्तदीयाः’ (नारदभक्तिसूत्र ७३), संसारके नहीं । अच्युत भगवान्‌के होनेसे वे ‘अच्युत गोत्र’ के ही कहलाते हैं ।

नारायण !      नारायण !!      नारायण !!!

‘शरणागति’ पुस्तकसे