साधक वह है, जिसमें असाधन अर्थात् साधन-विरुद्ध बात न हो । सांसारिक भोग तथा
संग्रहका उद्देश्य और रूचि होना ही साधन-विरुद्ध बात है । साधन-विरुद्ध उद्देश्य और रूचि साथमें रहने के कारण साधन
करते हुए भी उन्नति नहीं होती । जबतक धन, मान, बड़ाई, आराम आदिका उद्देश्य और
प्रियता साथमें रहती है, तबतक मनुष्य वास्तवमें साधक नहीं होता ।
कभी पारमार्थिक रूचि, कभी सांसारिक रूचि; कभी सद्गुण-सदाचार, कभी
दुर्गुण-दुराचार – इस प्रकार साधनके साथ-साथ साधन-विरुद्ध बात तो प्रत्येक साधारण
मनुष्यमें रहती है । किसी
मनुष्यमें साधनकी मुख्यता रहती है और किसी मनुष्यमें साधन-विरुद्ध आचरणकी मुख्यता
रहती है । परमात्माका अंश
होनेके कारण सद्गुण-सदाचारसे सर्वथा रहित कोई मनुष्य हो ही नहीं सकता । मनुष्यमें
केवल सद्गुण-सदाचार तो रह सकते हैं, पर केवल दुर्गुण-दुराचार रह ही नहीं सकते ।
अतः थोड़े-से सद्गुण-सदाचारसे, थोड़े-से साधनसे जो अपनेको साधक मान लेता है, वह गलती
करता है । वास्तवमें जिस मनुष्यमें साधन-विरुद्ध आचरण नहीं है, भोग तथा संग्रहका उद्देश्य
नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्वकी प्राप्तिका उद्देश्य है, वही साधक
कहलानेयोग्य है ।
जिसका यह भाव रहता है कि ‘हम बाबाजी (साधु) थोड़े ही हैं ! हम तो गृहस्थ हैं,
संसारमें रहते हैं, पैसा कमानेके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि तो करने ही पड़ते हैं;
क्योंकि इनके बिना पैसा पैदा होता नहीं, काम चलता नहीं’ आदि, वह साधक नहीं होता,
प्रत्युत ‘संसारी’ होता है । परन्तु जिसका यह भाव रहता है कि ‘मैं तो साधक हूँ और मेरेको केवल तत्वकी
प्राप्ति करनी है; अतः मैं साधन-विरुद्ध कार्य कैसे कर सकता हूँ’, वह ‘साधक’ होता
है । साधकका यह भाव होता है
कि जीवन-निर्वाहके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि करनेकी जरूरत ही नहीं है । काम
चलानेकी जिम्मेवारी ईश्वरपर है, हमारे पर नहीं । यदि अन्न-जल न मिलनेसे मर
जायँगे तो क्या अन्न-जल मिलनेसे नहीं मरेंगे ? समयसे पहले कोई मर ही नहीं सकता,
फिर जीवन-निर्वाहके लिये चिन्ता करने की क्या जरूरत है ?
जो मनुष्य
संसारी होता है, उसमें सांसारिकपना अखण्ड रहता है अर्थात् वह जिस रीतिसे सांसारिक
कार्य करता है, उसी रीतिसे पारमार्थिक कार्य (साधन) भी करता है । परन्तु जो मनुष्य
साधक होता है, उसमें साधकपना अखण्ड रहता है अर्थात् वह जिस रीतिसे पारमार्थिक
कार्य (साधन) करता है, उसी रीतिसे सांसारिक कार्य भी करता है । सांसारिक रूचिवाला मनुष्य सांसारिक कार्य तो लिप्त (तल्लीन)
होकर करता है, पर पारमार्थिक कार्य निर्लिप्त होकर (केवल नियमपूर्तिके लिये) करता
है ! परन्तु पारमार्थिक रूचिवाला साधक पारमार्थिक कार्य तो लिप्त (तल्लीन) होकर
करता है, पर सांसारिक कार्य निर्लिप्त होकर (कर्तव्यमात्र समझकर) करता है ।
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