इस प्रकार सब-का-सब काम धन्धा भगवान्का है और सब-का-सब समय भगवान्का । अब रह
गये व्यक्ति । ये हमारे भाई-बन्धु, माता-पिता,
स्त्री-पुत्र, कुटुम्बी, प्रेमी-सम्बन्धी हैं–ये सब व्यक्ति हैं । ये भी भगवान्के
हैं । ये भगवान्के
हैं तो भगवान्के जनोंकी सेवा कैसे करनी है ? जैसे श्रेष्ठ बहू अपने सासकी
सेवा करती है, इसी प्रकार सासको अपने बहूके प्रति कर्तव्य-पालन करना है यानी उसे सुख देना है, अपना सुख लेना नहीं है, अपना सुख लेना तो
हमारा उद्देश्य नहीं है, अपना सुख न लेकर उसको सुख कैसे पहुँचाना है ? माता
सीताको और कौसल्या अम्बाको याद कर लो । माँ कौसल्या तो यह कहती हैं कि मैंने
दीपककी बत्ती भी ठीक करनेके लिये सीताको कभी नहीं कहा और भूमिपर, जो कठोर है; पैर
नहीं रखने दिया । ऐसा तो माता कौसल्याने किया और सीता कहती हैं–मैं बड़ी अभागिनी
हूँ कि मैंने आपकी सेवा नहीं की । दोनोंको पश्चाताप इसीका है । बहूको यह विचार
नहीं कि सासने मुझे सुख नहीं दिया और सासको यह विचार नहीं कि बहूने मेरा धन्धा नहीं
किया । विचार यही है कि प्रभुका काम करना है । अतः इसकी सेवा कर देना है । जैसे वह प्रसन्न रहे, उसका हित हो, वैसे कर दे और अनुकूल बननेकी
भावना रखे ।
इसी तरह जितने भी कुटुम्बी हैं, सभी भगवान्के
हैं । अब विचार करें, उनमें हमें दो विभाग जान पड़ते हैं कि ये तो हमारे कुटुम्बी
हैं, हमारे सम्प्रदायके हैं और ये हमारे नहीं हैं । ये हमारे कुटुम्बी हैं–इसका
अर्थ यह हुआ कि इस कुटुम्बकी सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य, धर्म है;
क्योंकि इस कुटुम्बका मैं ऋणी हूँ, इसलिये इसका ऋण पहले चुकाना है और जो हमारे नहीं जान पड़ते, समय-समयपर उनकी भी सेवा करनी है ।
यानि उनकी सेवा करनेकी अधिक आवश्यकता होनेपर समय निकालकर पहले उनकी सेवा करे ।
सेवा क्यों करनी है ? भगवान्की प्रसन्नताके लिये; क्योंकि ये भगवान्के हैं । ‘ये हमारे हैं’–इसका तात्पर्य होता है कि इनकी सेवा विशेषतासे कर देनी है;
क्योंकि वे हमसे विशेषतासे सेवा चाहते हैं । अतः उनकी सेवा पहले कर दो और
विशेषतासे कर दो । परन्तु मानो यह कि ये भगवान्के हैं, मेरे नहीं हैं ।
इनमें जो ‘मेरापन’ प्रतीत होता है, इसका अर्थ यह है कि हमें उनको सुख पहुँचाना है,
इसलिये ये हमारे कुटुम्बी हैं; यह भावना सदा जाग्रत् रखे ।
अब अन्तमें रहीं वस्तुएँ । वस्तुओंका उपयोग अलग-अलग होगा ।
भोजनकी थाली-गिलासका उपयोग अलग होगा, लिखनेकी कलमका उपयोग अलग होगा । वस्तुएँ
अलग-अलग काममें आती हैं । यह अलग-अलग उपयोग किसलिये है ? भगवान्की प्रसन्नताके
लिये । इनको भगवान्की सेवामें लेना है । ये अपनी और ये दूसरेकी–भगवान्के नाते तो
यह विभाग है नहीं । किंतु जो हमारी कहलाती है, उस अपनी वस्तुसे पहले काम लेना है । इस
तरह इन वस्तुओंसे प्रभुकी और प्रभुके जनोंकी सेवा करनी है ।
तात्पर्य क्या निकला ? यही कि कोई-सा भी काम
भगवान्का न हो–ऐसा नहीं । कोई-सा भी क्षण भगवान्का न हो, ऐसा नहीं । कोई-सा भी
व्यक्ति भगवान्का न हो, ऐसा नहीं और कोई-सी भी वस्तु भगवान्की न हो, ऐसा नहीं । अब बताइये, निरन्तर भजनके सिवा और क्या हुआ ?
अतः निरन्तर भजन–निरन्तर साधन हो जायगा ।
|