ऐसी प्रबल जननेद्रियका रस भी रसबुद्धि
निवृत्त होनेपर सर्वथा नष्ट हो जाता है ! कारण कि काम
कितना ही प्रबल क्यों न हो, है तो वह नाशवान ही ! कामको जीतना कठिन तो हो
सकता है, पर असम्भव नहीं ! कठिन भी उसीके लिये है, जिसने
शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी सत्ता और महत्ता मान रखी है । अगर साधक शरीरमें अपनी स्थिति मानेगा तो उसको काम सतायेगा ही ।
यदि वह स्वरूप
(सत्तामात्र) में अपनी वास्तविक स्थितिको पहचान ले तो काम नष्ट हो जायगा,
क्योंकि स्वरूप (सत्तामात्र) में काम, क्रोध आदि विकार नहीं हैं । कारण कि
स्वरूपमें कोई कमी है ही नहीं, वह पूर्ण है, फिर उसमें काम कैसे आयेगा ?
रसबुद्धिके रहते हुए जब भोगोंकी प्राप्ति होती है, तब मनुष्यका चित्त पिघल जाता
है तथा वह भोगोंके वशीभूत हो जाता है । परन्तु रसबुद्धि निवृत्त होनेके बाद जब
भोगोंकी प्राप्ति होती है, तब तत्त्वज्ञ महापुरुषके चित्तमें किञ्चिन्मात्र भी कोई
विकार पैदा नहीं होता । उसके भीतर ऐसी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, जिससे भोग उसको
अपनी ओर खींच सकें । जैसे पशुके आगे रुपयोंकी थैली रख दें तो उसमें लोभ-वृत्ति
पैदा नहीं होती । पशु तो रुपयोंको और स्त्रीको जानता नहीं, पर तत्त्वज्ञ महापुरुष
रुपयोंको भी जानता है और स्त्रीको भी ! जैसे हम अंगुलीसे
शरीरके किसी अंगको खुजलाते हैं तो खुजली मिटनेपर अंगुलीमें कोई फरक नहीं पड़ता, कोई
विकृत्ति नहीं आती, ऐसे ही इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन होनेपर भी तत्त्वज्ञके
चित्तमें कोई विकार नहीं आता, वह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है । कारण
कि रसबुद्धि निवृत्त हो जानेसे वह अपने सुखके लिये किसी
विषयमें प्रवृत्त होता ही नहीं । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति दूसरोंके हित और सुखके लिये ही होती
है । अपने सुखके
लिये किया गया विषयोंका चिन्तन भी पतन करनेवाला हो जाता है[1] और अपने सुखके लिये न किया गया
विषयोंका सेवन भी मुक्ति देनेवाला हो जाता है[2] ।
जबतक अन्तःकरणमें किञ्चिन्मात्र भी भोगोंकी सत्ता और महत्ता रहती है, भोगोंमें
रसबुद्धि रहती है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस प्रकट नहीं होता । बाहरसे इन्द्रियोंका विषयोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर अर्थात् भोगोंका त्याग करनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि बनी
रहती है । तत्त्वबोध होनेपर यह रसबुद्धि सुख जाती है, निवृत्त हो जाती है–
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
(गीता
२/५९)
‘निराहारी[3] (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्यके भी विषय तो
निवृत्त हो जाते हैं, पर रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती । परन्तु परमात्मतत्त्वका
अनुभव होनेपर इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यकी रसबुद्धि भी निवृत्त हो जाती है ।’
तात्पर्य है कि जब संसारसे अपनी भिन्नता तथा
परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है, तब नाशवान् (संयोगजन्य) रसकी
निवृत्ति हो जाती है । नाशवान्
रसकी निवृत्ति होनेपर अविनाशी (शान्त, अखण्ड तथा अनन्त) रसकी जागृति हो जाती है ।
तत्त्वबोध होनेपर तो रस सर्वथा निवृत्त हो ही जाता है, पर तत्त्वबोध होनेसे पहले भी उसकी उपेक्षासे, विचारसे, सत्संगसे,
सन्तकृपासे रस निवृत्त हो सकता है । जिनकी रसबुद्धि निवृत्त हो चुकी है, ऐसे
तत्त्वज्ञ महापुरुषके संगसे भी रस निवृत्त हो जाता है ।
कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग–तीनों
साधनोंसे नाशवान् रसकी निवृत्ति हो जाती है । जब कर्मयोगमें सेवाका रस, ज्ञानयोगमें तत्त्वके अनुभवका रस
और भक्तियोगमें भगवत्स्मरणका रस मिलने लगता है, तब नाशवान् रस स्वतः छूट जाता है ।
जैसे बचपनमें खिलौनोंमें रस मिलता था, पर बड़े होनेपर जब रुपयोंमें रस मिलने लगता
है, तब खिलौनोंका रस स्वतः छूट जाता है, ऐसे ही साधनका
रस मिलनेपर भोगोंका रस स्वतः छूट जाता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
क्रोधाद्भवति सम्मोहः
सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
(गीता २/६२-६३)
विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्योंकी उन
विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है । आसक्तिसे कामना पैदा होती है । कामनासे क्रोध
पैदा होता है । क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है । सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट
हो जाती है । स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है । बुद्धिका नाश होनेपर
मनुष्यका पतन हो जाता है ।’
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः
पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता २/६४-६५)
वशीभूत अन्तःकरणवाला साधक राग-द्वेषसे रहित
अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी
प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है । प्रसन्नता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका
नाश हो जाता है और ऐसे प्रसन्न चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी
परमात्मामें स्थिर हो जाती है ।’
[3] शब्दादि विषय इन्द्रियोंके आहार हैं । उन विषयोंसे जिसने
अपनी इन्द्रियोंको हटा लिया है, उसको यहाँ ‘निराहारी’
कहा गया है ।
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