।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
  अविनाशी-रस



उपनिषद्‌‌में आया है–‘रसो वै सः’ (तैत्तिरीय. २/७) ‘वह परमात्मतत्त्व रसस्वरूप है ।’ तात्पर्य है कि रस वास्तवमें परमात्मतत्त्वमें ही है, जो शान्त, अखण्ड तथा अनन्त है । उस परमत्मतत्त्वका ही अंश होनेसे जीवात्मामें भी वह रस स्वतःस्वभाविक है–

ईस्वर अंस जीव अबिनाशी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥

परन्तु शरीरसे सम्बन्धकी मान्यता मुख्य होनेके कारण जीवात्माको वह रस सांसारिक भोगोंमें, इन्द्रियोंके विषयोंमें दीखने लगता है अर्थात् उसकी भोगोंमें रसबुद्धि हो जाती है । भोगोंका यह रस नाशवान् होता है, जब कि परमात्माका रस अविनाशी होता है । अतः भोगोंका रस तो निरसतामें बदल जाता है तथा उसका अन्त हो जाता है, पर परमात्माका रस नित्य-निरन्तर सरस रहता है तथा बढ़ता ही रहता है ।

भोगोंके रसकी दो अवस्थाएँ होती हैं–संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । इनमें संयोग-रसकी अपेक्षा वियोगरस श्रेष्ठ है; क्योंकि वियोगमें जो रस मिलता है, वह संयोगमें नहीं मिलता । जैसे, जबतक भोजन न मिले, तबतक ‘भोजन मिलेगा’–इस (मिलनकी लालसा) में जो सुख मिलता है, वह भोजन मिलनेपर नहीं रहता, प्रत्युत प्रत्येक ग्रासमें क्षीण होते-होते अन्तमें सर्वथा मिट जाता है और भोजनसे अरुचि पैदा हो जाती है ! परन्तु परमात्माका रस इससे बहुत विलक्षण है । वह संयोग और वियोग–दोनों ही अवस्थाओंमें समानरूपसे बढ़ता ही रहता है, न तो घटता है और न मिटता ही है !

भोगोंकी सत्ता और महत्ता माननेसे भीतरमें भोगोंके प्रति एक सूक्ष्म आकर्षण, प्रियता, मिठास पैदा होती है, उसका नाम ‘रस’ है । किसी लोभी व्यक्तिको रुपये मिल जायँ और कामी व्यक्तिको स्त्री मिल जाय तो भीतर-ही-भीतर एक खुशी आती है, यही ‘रस’ है । भोग भोगनेके बाद मनुष्य कहता है कि ‘बड़ा मजा आया’–यह उस रसकी स्मृति है । यह रस अहम् (चिज्जडग्रन्थि) में रहता है । इसी रसका स्थूल रूप राग, आसक्ति है ।

जबतक रसबुद्धि रहती है, तबतक प्रकृति और उसके कार्य (क्रिया और पदार्थ) की पराधीनता रहती है । रसबुद्धि निवृत्त होनेपर पराधीनता मिट जाती है, भोगोंके सुखकी परवशता नहीं रहती, भीतरसे भोगोंकी गुलामी नहीं रहती ।

भोगोंके रसमें जननेन्द्रियका रस बड़ा प्रबल माना गया है । इसलिये कामको जितना बड़ा कठिन होता है । संसारमें रुपयोंके विषयमें ईमानदार आदमी तो मिल सकते हैं, पर स्त्रीके विषयमें ईमानदार आदमी मिलना अपेक्षाकृत कठिन है । ईमानदार आदमी किसीके लाखों रुपये अपने पास सुरक्षित रख सकता है, पर किसीकी स्त्रीको अपने पास सुरक्षित रखना, विचलित न होना बहुत कठिन है । भर्तृहरिजी लिखते हैं–

  विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो   वाताम्बुपर्णाशना-
     स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः ।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा-
   स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥

‘जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी सुन्दर स्त्रियोंके मुखको देखकर मोहको प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दहीके साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकें तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !’

मत्तेभकुम्भदलने भुवि  सन्ति शूराः
   केचित् प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः ।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य
    कन्दर्पदर्पदलने    विरला   मनुष्याः ॥


‘इस पृथ्वीपर कुछ लोग तो हाथीका मस्तक विदीर्ण करनेमें शूर हैं और कुछ लोग प्रचण्ड सिंहको मारनेमें दक्ष हैं । परन्तु ऐसे बलवान् पुरुषोंके सामने मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि कामदेवके मदको चूर्ण करनेवाले पुरुष विरले ही हैं ।’