।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
  सबका कल्याण कैसे हो ?


आपलोगोंके किसी कुटुम्बी, सम्बन्धीका कोई भी काम पत्रमें लिखा आता है तो पत्रमें ऊपर जिसका नाम होता है, उसीपर भार होता है, कहीं बालकोंपर भी कोई भार होता है ? बालक तो यही सोचते हैं–विवाह है, अच्छी बात है, हम तो मौज करेंगे, मीठा-मीठा भोजन करेंगे । अरे ! तुम तो मौज करोगे, पर पितापर कितना खर्चा होगा, पता है ? पर उनको क्या चिन्ता ?

कितनी मौज हो रही है ! कोई नरसीजीसे पूछे–तुम किसके भरोसे जा रहे हो ? भरोसा क्या ? हमारे तो भगवान्‌ भात भरेंगे । तुम भी चलो भैया ! मीठा-मीठा भोजन करोगे । यहाँ अपने कोई चिन्ता-फिक्र है ? अपने तो मौज हो रही है ।

चिन्ता दीनदयालको मो मन सदा अनन्द ।
जायो सो प्रतिपालसी  रामदास गोविन्द ॥

हम तो सबकी चिन्ता-फिक्रसे छूट गाये । हमने तो प्रभुकी शरण ले ली । सब काम भगवान्‌का हो गया । मौज है । भगवान्‌के दरबारसे नीचे उतरे ही नहीं । ये जो छोटे-छोटे बालक–छोकरे होते हैं, उनमें कोई-कोई तो ऐसे होशियार हो जाते हैं कि माँ गोदसे नीचे रखे तो रोने लगते हैं । उन्हें बड़ी अच्छी युक्ति आ गयी । इसी तरह अपने तो भगवान्‌की गोदमें चढ़ा ही रहे, नीचे उतरे ही नहीं ।

इसीलिए नारदजीने भक्तिसूत्रमें बताया है–

तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।

सम्पूर्ण आचरणोंको  भगवान्‌के समर्पित कर दिया और भगवान्‌की विस्मृतिमें परम व्याकुलता, बड़ी घबराहट होती है; क्योंकि भगवान्‌ने गोदसे नीचे रख दिया । अतः यही निश्चय रखे कि ‘हम तो गोदमें ही रहेंगे, नीचे उतरेंगे ही नहीं । अब तुम दुःख पाओ चाहे सुख पाओ, हम क्या करें ।’  बच्‍चा तो गोदमें ही रहेगा; भार लगे तो माँको लगे, बच्‍चा क्या करे । हम नीचे उतरेंगे ही नहीं, हम तो प्रभो ! आपके चरणोंमें ही रहेंगे, आपकी गोदमें ही रहेंगे और मस्त रहेंगे । खूब मौज हो रही है । यहाँसे, सत्संगसे जाय तो खुशी-आनन्दमें ही जाय । क्या हो गया ? क्या, क्या हो गया; मौज हो गयी । ‘क्या’ तो पीछे रह गया अर्थात् ‘क्या’ का अर्थ प्रश्न होता है, सो प्रश्न तो हमारे रहा ही नहीं । भगवान्‌के यहाँ ही हम रहते हैं । भगवान्‌का ही काम करते हैं, भगवान्‌के ही दरबारमें रहते हैं । मौज-ही-मौज है । प्रभुके यहाँ आनन्द-ही आनन्द है । खुशी किस बातकी है ? तो दुःख ही किस बातका ? चिन्ता किस बातकी ? कोई है तो ‘चिन्ता दीनदयालको’ । हम तो मौज करते हैं । बस, अभीसे ही मस्तीमें रहे । चले-फिरे, उठे-बैठे–सब समय मौज-ही-मौज है । उसके तो भगवच्‍चिन्तन ही होता है । फिर भगवान्‌का चिन्तन करना नहीं पड़ता । ऐसी मस्तीमें चिन्तन स्वतः होता है । इसलिये ध्रुवजीने कहा है–‘विस्मर्यते कृतविदा कथामार्तबन्धो ।’

आपको भूलें कैसे ? आप भूल जायँ कैसे ? कैसे भूलें, बताइये । इस जन्ममें माँ थोड़ा ही प्यार करती है । जब वह माँ भी याद रहती है, तब अनन्त जन्मोंसे प्यार करनेवाली माँ कैसे भूली जाय ! सदा स्‍नेह रखनेवाले भगवान्‌ भूले जायँ ? हमारा काम तो उनके चरणोंमें पड़े रहना है, उनकी ओर मुँह करना है । हमको याद करते हैं स्वयं वे प्रभु । एक बात याद आ गयी । ध्यान देकर सुनें । हम भगवान्‌को याद नहीं करते तब भी भगवान्‌ हमको याद करते हैं । इसका क्या पता ? आप जिस स्थितिमें रहते हैं, उस स्थितिसे उबते हैं कि नहीं, तंग आते हैं कि नहीं ? कुटुम्बसे, रुपये-पैसेसे, शरीरसे, काम-धन्धेसे तंग आते हैं न ? क्यों आते हैं ? भगवान्‌ आपको याद करते हैं तब तंग आते हैं–भगवान्‌ अपनी तरफ खींचते हैं तब उस स्थितिसे तंग आ जाते हैं । फिर भी हम उसे पकड़ लेते हैं । किंतु भगवान्‌ ऐसी स्थिति रखना नहीं चाहते किसी जीवकी कि वह भोगोंमें, रुपयोंमें, कुटुम्बमें फँसे । अर्थात् ऐसी कोई स्थिति नहीं जहाँ ठोकर न लगे । ऐसी कोई स्थिति हो तो आप बतायें ? ठोकर तभी लगती है, जब भगवान्‌ हमें विशेषतासे याद करते हैं कि अरे ! कहाँ भूल गया तू ? मुझे याद कर । मुझको छोड़कर कहाँ भटकता है ? पर हम फिर फँसते हैं । भगवान्‌ यदि हमें याद नहीं करते तो हमें सुखकी इच्छा कभी नहीं रहती क्योंकि परम सुखस्वरूप, परम आनन्दस्वरूप तो भगवान्‌ ही हैं । यह सुखकी इच्छा, भगवान्‌की इच्छा होती है, यह भगवान्‌ हमें याद करते हैं, अपनी ओर खींचते हैं, पर वे जबरदस्ती नहीं करते ।

सार बात यह है कि सभी काम भगवान्‌के हैं और सभी समय भगवान्‌का है, सभी व्यक्ति भगवान्‌के हैं और सभी वस्तुएँ भगवान्‌की हैं । कोई भी क्रिया करते समय यह अनुभव निरन्तर होता रहे तो साधन निरन्तर हो सकता है, जिससे सबका कल्याण है ही ।


नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!