गीतामें भगवान्, आचार्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिकी उपासनाका ( विस्तारसे अथवा संक्षेपसे) फलसहित
वर्णन हुआ है; जैसे‒
(१) अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी) ‒ये चार प्रकारके भक्त भगवान्का
भजन करते हैं अर्थात् उनकी शरण होते हैं (७ । १६) ।
भगवान्का भजन-पूजन करनेवाले भक्त भगवान्को प्राप्त हो जाते
हैं‒‘मद्भक्ता यान्ति
मामपि’ (७ । २३), ‘यान्ति
मद्याजिनोऽपि माम्’ (९ । २५)[1]
।
(२) जो वास्तवमें जीवन्मुक्त,
तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष हैं,
जिनका जीवन शास्त्रोंके अनुसार है,
वे ‘आचार्य’
होते हैं । ऐसे आचार्यकी आज्ञाका पालन
करना, उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी
उपासना है (४ । ३४; १३ । ७) । इस तरह आचार्यकी उपासना करनेवाले मनुष्य
मृत्युको तर जाते हैं (४ । ३५, १३ । २५) ।
(३) जो लोग कामनाओंमें तन्मय होते हैं और भोग भोगना तथा संग्रह
करना‒इसके सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसा निक्षय करनेवाले होते हैं,
वे भोगोंकी प्राप्तिके लिये वेदोक्त शुभकर्म करते हैं (२ । ४२-४३)
। कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी
उपासना किया करते हैं; क्योंकि मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिल जाती है
(४ । १२) । सुखभोगकी कामनाओंके द्वारा जिनका विवेक ढक जाता है,
वे भगवान्को छोड़कर देवताओंकी शरण हो जाते हैं और अपने-अपने
स्वभावके परवश होकर कामनापूर्तिके लिये अनेक नियमों,
उपायोंको धारण करते हैं (७ । २०) । भगवान् कहते हैं कि जो-जो
भक्त जिस-जिस देवताका पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको
दृढ़ कर देता हूँ । फिर वह उस श्रद्धासे युक्त होकर उस देवताकी उपासना करता है । परन्तु
उसको उस उपासनाका फल मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है (७ । २१-२२) । तीनों वेदोंमें
विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्रका पूजन
करके स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं (९ । २०) । कामनायुक्त मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य
देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी वास्तवमें मेरा (भगवान्का) ही पूजन करते हैं;
परंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक है (९ । २३) ।
देवताओंकी उपासना करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और
वहाँ अपने पुण्यका फल भोगकर फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं (९ । २०-२१) । देवताओंका
पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनके लोकोंमें चले जाते हैं‒‘देवान्देवयजः’ (७ ।
२३); ‘यान्ति देवव्रता देवान्’ (९ ।
२५) ।
[1] गीतामें भगवान्की
उपासनाका ही मुख्यतासे वर्णन हुआ है । ‘गीता-दर्पण’ में भी कई शीर्षकोंके अन्तर्गत
भगवान्की उपासनाका अनेक प्रकारसे विवेचन किया गया है । अतः यहाँ भगवान्की उपासनाका
वर्णन अत्यन्त संक्षेपसे किया गया है ।
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