।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
दुर्गतिसे बचो




गीतामें भगवान्, आचार्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिकी उपासनाका ( विस्तारसे अथवा संक्षेपसे) फलसहित वर्णन हुआ है; जैसे‒

(१) अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी) ‒ये चार प्रकारके भक्त भगवान्‌का भजन करते हैं अर्थात् उनकी शरण होते हैं (७ । १६) ।

भगवान्‌का भजन-पूजन करनेवाले भक्त भगवान्‌को प्राप्त हो जाते हैं‒‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (७ । २३), ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्’ (९ । २५)[1]

(२) जो वास्तवमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष हैं, जिनका जीवन शास्त्रोंके अनुसार है, वे ‘आचार्य’ होते हैं । ऐसे आचार्यकी आज्ञाका पालन करना, उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी उपासना है (४ । ३४; १३ । ७) । इस तरह आचार्यकी उपासना करनेवाले मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं (४ । ३५, १३ । २५) ।

(३) जो लोग कामनाओंमें तन्मय होते हैं और भोग भोगना तथा संग्रह करना‒इसके सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसा निक्षय करनेवाले होते हैं, वे भोगोंकी प्राप्तिके लिये वेदोक्त शुभकर्म करते हैं (२ । ४२-४३) । कर्मोंकी सिद्धि  (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिल जाती है (४ । १२) । सुखभोगकी कामनाओंके द्वारा जिनका विवेक ढक जाता है, वे भगवान्‌को छोड़कर देवताओंकी शरण हो जाते हैं और अपने-अपने स्वभावके परवश होकर कामनापूर्तिके लिये अनेक नियमों, उपायोंको धारण करते हैं (७ । २०) । भगवान् कहते हैं कि जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ । फिर वह उस श्रद्धासे युक्त होकर उस देवताकी उपासना करता है । परन्तु उसको उस उपासनाका फल मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है (७ । २१-२२) । तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्रका पूजन करके स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं (९ । २०) । कामनायुक्त मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी वास्तवमें मेरा (भगवान्‌का) ही पूजन करते हैं; परंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक है (९ । २३) ।

देवताओंकी उपासना करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और वहाँ अपने पुण्यका फल भोगकर फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं (९ । २०-२१) । देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनके लोकोंमें चले जाते हैं‒‘देवान्देवयजः’ (७ । २३); ‘यान्ति देवव्रता देवान्’ (९ । २५)



[1] गीतामें भगवान्‌की उपासनाका ही मुख्यतासे वर्णन हुआ है । ‘गीता-दर्पण’ में भी कई शीर्षकोंके अन्तर्गत भगवान्‌की उपासनाका अनेक प्रकारसे विवेचन किया गया है । अतः यहाँ भगवान्‌की उपासनाका वर्णन अत्यन्त संक्षेपसे किया गया है ।