आपकी क्या दशा होगी ? सारे दिन बातें करती रहती हो । राम-राम करो तो निहाल हो जाओ
! उतना ही तो खर्चा है और क्या है ? दुनियाकी कथा क्यों करो,
राम-राम करो, जिससे अपना भी कल्याण और दूसरोंका भी कल्याण ! कोई ऐसी-वैसी
बात करने आ जाय तो आप राम-राममें; भजनमें लग जाओ । जैसे मक्खियाँ मुँहपर बैठती हैं तो बढ़िया इत्र
मुँहपर लगा लो, एक भी मक्खी मुँहपर नहीं बैठेगी,
ऐसे ही कोई बात करने आ जाय तो भगवान्की बात,
सत्संगकी बात छेड़ दो,
राम-राम करो । वह चली जायगी,
टिकेगी नहीं । मक्खियों तो गन्दगीपर ही ठहरती हैं,
उनको सुगन्ध नहीं सुहाती ।
तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात ।
जैसे ज्वरके जोर से, भूख
बिदा हो जात ॥
किसीको ज्वर आ जाय तो उसको अन्नकी गन्ध आती है । अन्न अच्छा नहीं लगता;
क्योंकि भीतरमें खराबी है । ऐसे ही जिसका अन्तःकरण खराब है,
उसको सत्संग-भजन अच्छा नहीं लगता ।
अपने अन्तःकरणमें कोई गड़बड़ी आ जाय तो भगवान्को पुकारो, हे
नाथ ! हे नाथ !! पुकारो । यह एक दवाई है असली भगवान्को याद करो, खूब
मस्त रहो । अपने कल्याणके
लिये, पतिके कल्याणके लिये,
माता-पिताके कल्याणके लिये भगवान्के भजनमें लग जाओ । पुरुष
यदि श्रेष्ठ, उत्तम होता है तो वह अपने ही कुलका उद्धार करता है;
परन्तु स्त्री श्रेष्ठ होती है तो वह दोनों कुलोंका उद्धार कर
देती है‒
एवा उत्तम गुण थी उभय
सुकुल उजवालिये हे ।
सखियाँ निज-निज नीति धर्म सदा सम्भालिये हे ॥
महाराज जनक चित्रकूट गये । वहाँ सीताजी सादे वेशमें थीं । कितने प्रेमसे पली थीं
सीताजी! माता-पिताका उनपर बड़ा स्नेह था । जनकपुरीके कई राजकीय आदमी जनकजीके साथमें
आये थे । उन्होंने सीताजीको साधारण वेशमें देखा तो रो पड़े कि हमारे महाराजकी पुत्री
जंगलमें रहकर दुःख पा रही है ! रहनेको जगह नहीं,
खानेको अन्न नहीं, पहननेको पूरा बढ़िया कपड़ा नहीं ! परन्तु महाराज जनक बड़े राजी
हुए और बोले कि बेटी ! तूने दोनों कुलोंको पवित्र कर दिया‒‘पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ’ (मानस
२ । २८७ । १) । स्त्रियाँ श्रेष्ठ होती हैं तो दोनों कुलोंका उद्धार करती हैं और
खराब होती हैं तो दोनों कुलोंका नाश करती हैं । इसलिये बहनो ! धर्मकी,
कुलकी मर्यादामें चलो । बालकोंपर,
कुटुम्बियोंपर आपके आचरणोंका असर पड़ता है । समुद्रके बीचमें
यह पृथ्वी किस बलपर धारण की हुई है ?‒
गोभिर्विप्रैक्ष वेदैक्ष सतीभिः सत्यवादिभिः ।
अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही ॥
(स्कन्दपुराण, माहे॰ कुमार॰ २ । ७१)
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