।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७५, शुक्रवार
  सत्संगकी आवश्यकता



आपकी क्या दशा होगी ? सारे दिन बातें करती रहती हो । राम-राम करो तो निहाल हो जाओ ! उतना ही तो खर्चा है और क्या है ? दुनियाकी कथा क्यों करो, राम-राम करो, जिससे अपना भी कल्याण और दूसरोंका भी कल्याण ! कोई ऐसी-वैसी बात करने आ जाय तो आप राम-राममें; भजनमें लग जाओ । जैसे मक्खियाँ मुँहपर बैठती हैं तो बढ़िया इत्र मुँहपर लगा लो, एक भी मक्खी मुँहपर नहीं बैठेगी, ऐसे ही कोई बात करने आ जाय तो भगवान्‌की बात, सत्संगकी बात छेड़ दो, राम-राम करो । वह चली जायगी, टिकेगी नहीं । मक्खियों तो गन्दगीपर ही ठहरती हैं, उनको सुगन्ध नहीं सुहाती ।

तुलसी पूरब पाप ते,  हरिचर्चा न सुहात ।
जैसे ज्वरके जोर से, भूख बिदा हो जात ॥

किसीको ज्वर आ जाय तो उसको अन्नकी गन्ध आती है । अन्न अच्छा नहीं लगता; क्योंकि भीतरमें खराबी है । ऐसे ही जिसका अन्तःकरण खराब है, उसको सत्संग-भजन अच्छा नहीं लगता ।

अपने अन्तःकरणमें कोई गड़बड़ी आ जाय तो भगवान्‌को पुकारो, हे नाथ ! हे नाथ !! पुकारो । यह एक दवाई है असली भगवान्‌को याद करो, खूब मस्त रहो । अपने कल्याणके लिये, पतिके कल्याणके लिये, माता-पिताके कल्याणके लिये भगवान्‌के भजनमें लग जाओ । पुरुष यदि श्रेष्ठ, उत्तम होता है तो वह अपने ही कुलका उद्धार करता है; परन्तु स्त्री श्रेष्ठ होती है तो वह दोनों कुलोंका उद्धार कर देती है‒

एवा उत्तम गुण थी  उभय  सुकुल  उजवालिये  हे ।
सखियाँ निज-निज नीति धर्म सदा सम्भालिये हे ॥

महाराज जनक चित्रकूट गये । वहाँ सीताजी सादे वेशमें थीं । कितने प्रेमसे पली थीं सीताजी! माता-पिताका उनपर बड़ा स्नेह था । जनकपुरीके कई राजकीय आदमी जनकजीके साथमें आये थे । उन्होंने सीताजीको साधारण वेशमें देखा तो रो पड़े कि हमारे महाराजकी पुत्री जंगलमें रहकर दुःख पा रही है ! रहनेको जगह नहीं, खानेको अन्न नहीं, पहननेको पूरा बढ़िया कपड़ा नहीं ! परन्तु महाराज जनक बड़े राजी हुए और बोले कि बेटी ! तूने दोनों कुलोंको पवित्र कर दिया‒‘पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ’ (मानस २ । २८७ । १)स्त्रियाँ श्रेष्ठ होती हैं तो दोनों कुलोंका उद्धार करती हैं और खराब होती हैं तो दोनों कुलोंका नाश करती हैं । इसलिये बहनो ! धर्मकी, कुलकी मर्यादामें चलो । बालकोंपर, कुटुम्बियोंपर आपके आचरणोंका असर पड़ता है । समुद्रके बीचमें यह पृथ्वी किस बलपर धारण की हुई है ?‒

गोभिर्विप्रैक्ष वेदैक्ष सतीभिः सत्यवादिभिः ।
अलुब्धैर्दानशीलैश्च      सप्तभिर्धार्यते मही ॥
                          (स्कन्दपुराण, माहे कुमार २ । ७१)

‘गायें, ब्राह्मण, वेद, सती स्त्री, सत्यवादी, लोभरहित और दानशील सन्त-महापुरुष‒इन सातोंके द्वारा यह पृथ्वी धारण की जाती है अर्थात् इनपर पृथ्वी टिकी हुई है ।’