पढ़ाई चक्षुनिरपेक्ष तो होती है, पर चक्षुरहित नहीं होती । चक्षुनिरपेक्ष कहनेका तात्पर्य
है कि जिसके चक्षु हैं, वह भी पढ़ाई कर सकता है और जिसके चक्षु नहीं हैं, वह भी (कानसे सुनकर) पढ़ाई कर सकता है । अगर पढ़ाईको चक्षुरहित
कहें तो जिसके चक्षु हैं, वह पढ़ाई कैसे कर सकेगा ? इसी तरह साधन
करणनिरपेक्ष होता है, करणरहित नहीं होता ।
शरीरसे ‘निरपेक्ष’ होनेपर मुक्ति होती है, ‘सापेक्ष’ होनेपर बन्धन होता है और ‘रहित’ होनेपर मृत्यु होती है ।
धनके दृष्टान्तसे करणनिरपेक्षताका
विवेचन
धन (मुद्रा) वस्तुप्राप्तिका साधन है, साध्य नहीं । वास्तवमें देखा जाय तो धन खुद वस्तुप्राप्तिका
साधन नहीं है, प्रत्युत धनका खर्च (त्याग) ही वस्तुप्राप्तिका
साधन है । कारण कि वस्तुकी प्राप्ति धनसे नहीं होती, प्रत्युत धनके खर्चसे होती है । अगर वस्तुकी प्राप्ति धनसे होती तो
हमारे पास धन रहते हुए ही अर्थात् धनको खर्च किये बिना धनसे ही वस्तु पैदा हो जाती
! परन्तु खर्च करनेसे ही धन हमारे अथवा दूसरोंके काम आता है । अतः धनको महत्त्व न देकर
उसके खर्चको ही महत्त्व देना है; क्योंकि धन
महत्त्वकी चीज नहीं है, प्रत्युत उसका खर्च ही महत्त्वकी चीज है । इसी तरह करण साधन है, साध्य नहीं है । वास्तवमें करणका
त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) ही तत्त्वप्राप्तिका साधन है; क्योंकि तत्त्वकी प्राप्ति करणके द्वारा
नहीं होती, प्रत्युत करणके त्यागसे
होती है । अतः करणको महत्त्व न देकर उसके त्यागको ही महत्त्व देना है ।
जबतक हम धनका महत्त्व मानेंगे, तबतक हम धनका खर्च नहीं कर सकेंगे । ऐसे ही जबतक हम करणका
महत्त्व मानेंगे, तबतक हम करणसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं
कर सकेंगे । अतः साधकको आरम्भमें ही यह बात समझ लेनी चाहिये कि करण महत्त्वकी चीज नहीं
है, प्रत्युत उसका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) ही महत्त्वकी चीज
है । अतः करणको काममें लेते हुए भी उसका महत्त्व न रहे उसकी अपेक्षा न रहे, तब करणनिरपेक्ष साधन होगा ।
अगर हम धनको महत्त्व देंगे तो हमारी
संग्रहबुद्धि हो जायगी । संग्रहबुद्धि होना अर्थात् धनके
संग्रहको महत्त्व देना पतनकी खास चीज है । धनके संग्रहको महत्त्व देनेवाला मनुष्य बड़े-बड़े
पाप, अन्याय, अत्याचार कर बैठता है । अतः धनका
त्याग (खर्च) तो साधन है, पर वस्तुप्राप्तिको धनके अधीन मानकर धनका संग्रह करना महान्
असाधन है । इसी तरह करणका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) तो साधन है, पर तत्त्वप्राप्तिको करणके अधीन मानकर करणकी सहायता लेना
महान् असाधन है । तात्पर्य है कि धनको काममें तो लेना है, पर महत्त्व धनको न देकर उसके खर्चको ही देना है । ऐसे ही करणको काममें तो लेना है, पर महत्त्व करणको न देकर उसके सम्बन्ध-विच्छेदको
ही देना है । अगर हम करणको महत्त्व देंगे तो करण बाँधनेवाला हो जायगा और हम करणसे अतीत नहीं
हो सकेंगे । करणसे अतीत हुए बिना करणरहित तत्त्वकी प्राप्ति कैसे होगी ?