जैसे, नरकोंमें प्राणियोंको उबलते हुए तेलमें डाल देते हैं,
उनके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं,
फिर भी जिन पापकर्मोंके कारण वे नरकोंमें गये हैं,
उन कर्मोंके समाप्त होनेतक वे प्राणी मरते नहीं । ऐसे ही मनुष्यका
कोई बुरे कर्मोंका भोग आ जाता है तो उनमें भूत-प्रेत प्रविष्ट हो जाते हैं । जबतक कर्मोंका भोग बाकी रहता है, तबतक
कितने ही उपाय करनेपर, मन्त्र-यन्त्र आदिका प्रयोग करनेपर भी भूत-प्रेत
निकलते नहीं । जब कर्मोंका भोग समाप्त हो जाता है, तब
किसी निमित्तसे वे निकल जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जिनको प्रारब्धके अनुसार दुःख भोगना है,
उन्हींमें प्रविष्ट होकर भूत-प्रेत उनको दुःख देते हैं ।
ऐसा देखा जाता है कि कुटुम्बका कोई व्यक्ति मरकर पितर बन जाता
है तो वह जब आता है, तब किसी एक व्यक्तिमें ही आता है,
हरेकमें नहीं आता । इससे पता लगता है कि जिसके साथ पुराना ऋणानुबन्ध
होता है, उसीमें पितर आते हैं । इसी तरह भूत-प्रेत भी उसीमें आते हैं,
जिसके साथ पुराना ऋणानुबन्ध होता है ।
भूत-प्रेत मनुष्यकी आयु रहते हुए उसको मार नहीं सकते
। उसकी आयु समाप्त होनेपर ही वे उसको मार सकते हैं । इस विषयमें हमने एक बात सुनी है । लगभग सौ वर्ष पुरानी राजस्थानकी
घटना है । कुछ मुसलमान गायोंको कसाईखाने ले जा रहे थे । वहाँके राजाको इसकी खबर मिली
तो उसने अपने सिपाहियोंको भेजा । सिपाहियोंने उन मुसलमानोंको मारकर गायें छुड़ा लीं
। उनमेंसे एक मुसलमान मरकर जिन्न बन गया और वह राजाके पीछे लग गया । राजाने बहुत उपाय
किये, पर उसने छोड़ा नहीं । जिन्न कहता कि मैं एक आदमीकी बलि लेकर ही
जाऊँगा । आखिर एक ठाकुरने कहा कि मैं अपनी बलि देनेके लिये तैयार हूँ । जिन्नने राजाको
छोड़ दिया और तुरन्त उस ठाकुरको मार दिया । ठाकुरके इच्छानुसार उसके शवको (श्मशान-भूमिमें
ले जानेसे पहले) उसके गुरुके पास ले जाया गया । जब लोग ठाकुरके शवको उसके गुरुके चारों
तरफ घुमाकर (परिक्रमा दिलाकर) ले जाने लगे,
तब गुरुके पास बैठे एक दूसरे सन्तने कहा कि शव खाली जा रहा है,
कुछ देना चाहिये । गुरु बोले कि कुछ कर नहीं सकते,
इसकी आयु पूरी हो गयी है । फिर विचार करके दोनों सन्तोंने अपनी
आयुमेंसे बारह वर्षकी आयु देकर ठाकुरको जीवित कर दिया । तात्पर्य है कि राजाकी आयु
पूरी नहीं हुई थी, इसलिये जिन्न उसको मार नहीं सका । परन्तु ठाकुरकी आयु पूरी हो
चुकी थी, अतः जिन्नने उसको मार दिया ।
प्रश्न‒मृगीरोगवाले
और प्रेतबाधावाले मनुष्योंके लक्षण प्रायः एक समान दीखते हैं; अतः
उन दोनोंकी अलग-अलग पहचान कैसे हो ?
उत्तर‒मृगीरोगवाले व्यक्तिको तो मूर्च्छा होती है,
पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिको प्रायः मूर्च्छा नहीं होती,
वह कुछ-न-कुछ बकता रहता है । मृगीरोगवाले व्यक्तिमें तो एक ही
जीवात्मा रहती है पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिमें जीवात्माके साथ प्रेतात्मा भी रहती है,
जो उस व्यक्तिको कई तरहसे दुःख देती है, तंग करती है । मृगीरोगवाला
व्यक्ति तो दवासे ठीक हो जाता है, पर प्रेतबाधावाला व्यक्ति दवासे ठीक
नहीं होता ।