ग्रहण उसीका किया जाता है, जिसकी सत्ता हो । संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है, वह एक क्षण भी नहीं
ठहरता, फिर वह ग्रहणमें आ ही कैसे सकता है ? चेतनसे चेतनका ही ग्रहण होता है ।
स्वयं (आत्मा) चेतन है; अतः वह चेतन परमात्मतत्त्वको ही ग्रहण करता है, जडको नहीं ।
परन्तु जब स्वयं जडके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह जड
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा जडताको ही ग्रहण करता है । जडताको ग्रहण
करनेसे वह चिन्मय तत्त्व (परमात्मा) से विमुख हो जाता है और उसमें जडता (शरीर) की मुख्यता हो जाती है । जडताकी मुख्यताको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह ‘यह सब
नहीं है’–इस वास्तविकताको दृढ़तासे मान ले ।
ऐसा माननेसे उसका जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और ‘सब कुछ परमात्मा ही है’–यह
अनुभवमें आ जायगा । तात्पर्य है कि उसके द्वारा जडताका ग्रहण नहीं होगा,
प्रत्युत परमात्माका ही ग्रहण होगा ।
जैसे, मनुष्यकी दृष्टि जब गहनोंकी तरफ, उनके नाम, रूप,
आकृति, तौल, मूल्य तथा उपयोगकी तरफ रहती है, तब उसकी दृष्टिमें सोनेकी मुख्यता
नहीं रहती । ऐसे ही जब मनुष्यकी दृष्टि संसारकी तरफ रहती
है, तब उसकी दृष्टि परमात्माकी तरफ नहीं जाती । अगर वह दृढ़तासे मान ले कि ‘यह सब
नहीं है’ तो उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जायगा और ‘सब कुछ
परमात्मा ही है’–यह अनुभवमें आ जायगा । तात्पर्य है कि उसकी दृष्टिमें
संसार नहीं रहेगा, प्रत्युत परमात्मा ही रहेगा–‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९), जो कि वास्तवमें है ।
|