।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं. २०७५ रविवार
प्राप्त तत्त्वका अनुभव
        


एक दीखनेवाली वस्तु है और एक न दीखनेवाली वस्तु है । दीखनेवाली वस्तु ‘प्रतीति’ है[1] और न दीखनेवाली वस्तु ‘प्राप्त’ है । प्रतीतिको जड (प्रकृति) कहते हैं, जिसका असत्-रूपसे वर्णन किया जाता है और प्राप्तको चेतन (पुरुष) कहते हैं, जिसका सत्-रूपसे वर्णन किया जाता है–‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि’ (गीता १३/१९) । प्रतितिकी तो स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और प्राप्तकी सत्ता ही होती है–‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६)

जड और चेतन–दोनों परस्परविरोधी स्वभाववाले हैं । जड तो नित्य-निरन्तर बदलता रहता है, एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता और चेतन नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, कभी एक क्षण भी बदलता नहीं । जैसे रात और दिनका कभी परस्पर संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही जड और चेतनका भी कभी परस्पर संयोग नहीं हो सकता । परन्तु गीतामें (१३/२६) आया है कि सम्पूर्ण प्राणी जड-चेतनके संयोगसे पैदा होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि चेतन ही जडके साथ अपना संयोग मानता है अर्थात् जड-चेतनका संयोग केवल चेतनकी मान्यता है, वास्तवमें है नहीं–‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७/५); ‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५/७)इस माने हुए संयोगको छोड़नेकी जिम्मेवारी भी चेतनपर ही है; क्योंकि इसने ही जडको पकड़ा है ।

जब चेतन जडके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब तादात्म्यरूप अहम् पैदा होता है । यह अहम् न केवल चेतनमें है और न केवल जडमें है, प्रत्युत जड-चेतनके माने हुए संयोग (चिज्जडग्रन्थि) में है । यह अहम् ही संसार-बन्धनका मूल कारण है । इस अहम्‌से ही ममता, कामना आदि अनेक दोषोंकी उत्पत्ति होती है । अतः इस अहम्‌को मिटानेके लिये साधक चाहे संसारकी दृष्टिसे ऐसा मान ले कि ‘संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है’ चाहे परमात्माकी दृष्टिसे ऐसा मान ले कि ‘सब कुछ परमात्मा ही है’[2]

श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ने संसारकी दृष्टिसे कहा है–

किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत् ।
वाचोदितं   तदनृतं   मनसा   ध्यातमेव च ॥
                                                 (११/२८/४)

‘संसारकी सब वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं और मनसे सोची जा सकती हैं; अतः वे सब असत्य हैं । जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है तो फिर उसमें क्या अच्छा और क्या बुरा ?’
         परमात्माकी दृष्टिसे कहा है–

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव  न  मत्तोऽन्यदिति   बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                                 (११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे[3] जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है–यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीध्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’



[1] प्रतीतिके दो भेद हैं–प्रतीति और भान । प्रतीति इन्द्रियोंका विषय है और भान अन्तःकरणका विषय है । प्रतीति स्थूल है और भान सूक्ष्म है । सांसारिक पदार्थों, व्यक्तियों आदिकी प्रतीति होती है और इन्द्रियोंका, अहम्‌का भान होता है । तात्पर्य है कि प्रतीति और अनुभव–दोनोंके बीचमें भान है । भानका ज्ञाता स्वयं (आत्मा) है ।

[2] ज्ञानकी रुचिवाला साधक मानता है कि ‘यह सब कुछ नहीं है’ और भक्तिकी रुचिवाला साधक मानता है कि ‘सब कुछ परमात्मा ही है’ । रुचिभेद होनेपर भी परिणाममें दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् दोनोंका यह अनुभव हो जाता है कि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय कुछ नहीं है ।

[3] यहाँ ‘मनसा’ से अन्तःकरण, ‘वचसा’ से सभी कर्मेन्द्रियाँ और ‘दृष्ट्या’ से सभी ज्ञानेन्द्रियाँ लेनी चाहिये ।