एक कविने कहा है—
सुवरण को ढूँढ़त फिरत कवि व्यभिचारी चोर ।
चरन धरत धड़कत हियो नेक न
भावत शोर ॥
कवि, व्यभिचारी और चोर—ये तीनों ही ‘सुवर्ण’ ढूँढ़ते
हैं । व्यभिचारी सुन्दर स्वरुपको ढूँढ़ता है और चोर सोना ढूँढ़ता है । ‘चरण धरत धड़कत हियो’—कवि भी किसी श्लोकाका चरण रखता है तो उसका हृदय धड़कता है ।
मानो उसके यह भाव आता है कि श्लोक बढ़िया लिखा गया या नहीं । श्लोकके चार चरण होते
हैं । व्यभिचारी और चोरका भी चरण रखते
हृदय धड़कता है कि कोई देख न ले । ‘नेक न भावत शोर’—न कविको हल्ला-गुल्ला सुहाता है, न व्यभिचारीको और न चोरको ।
इस तरह तीनों ‘सुवर्ण’ को ढूँढ़ते हैं ।
‘कामिहि नारि पिआरि जिमि’—इस उदाहरणसे श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप लिया गया और ‘लोभिहि प्रिय जिमि दाम’—लोभीकी तरह मेरेको भगवान्का नाम प्यारा लगे । लोभीको सुन्दर
रूप नहीं, प्रत्युत संख्या प्यारी लगती है । उसको एक रुपयाका नोट गड्डीमेंसे निकाल
कर दे दो और पाँच या दसका फटा हुआ नोट दिखाओ और उससे पूछो कि दोनोंमेंसे कौन-सा
लोगे ? लोभी एक रुपयाका सुन्दर नोट नहीं लेगा, पुराना, मैला, फटा दस रुपयेको ही
लेगा । एक रुपया सुन्दर है तो वह क्या करे ? वह तो गिनती देखता है कि यह पाँचका है, यह दसका है । ऐसे ही गोस्वामीजी कहते हैं, सुन्दर रूप रामजीका प्यारा लगे और नामकी
गिनती बढ़ाते ही चले जायें । ‘जिमि प्रति लाभ लोभ
अधिकाई’—नाम लोभीकी तरह लिया जाय ।
यहाँ ये दो दृष्टान्त बतानेका
तात्पर्य है कि इन दोपर ही लोग आकृष्ट होते हैं—‘माधोजीसे मिलना कैसे होय । सबल बैरी बसे घट भीतर कनक कामिनी दोय ॥’ एक तो स्त्री और एक रुपयोंकी गिनती—इन
दोकी जगह क्या करें ? इनमें संसारकी सुन्दरताकी जगह तो श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप
बैठा दें और रुपयोंकी गिनतीकी जगह भगवान्के नामको बैठा दें । इस तरह दोनोंकी
खाना-पूर्ति हो गयी न ! सुन्दरता भगवान्के रूपकी और गिनती उनके नामकी । इतना
कहनेपर भी सन्तोष नहीं हुआ । फिर कहा—‘तिमी रघुनाथ निरंतर प्रिय
लागहु मोहि राम’—निरंतर नहीं होगा तो गलती रह जायगी ।
सांसारिक रुपये हैं तो प्यारे और अच्छे भी लगते हैं परन्तु जब इंक्वायरी आती है,
दो नम्बरके रुपये भीतर रखे हैं, इधर सिपाही आ जाते हैं, तो मनसे यह इच्छा होती है
कि अभी रुपये नहीं होते तो अच्छे थे । रुपयोंका लोभ होनेपर भी वह रुपयोंको नहीं
चाहता । उसी तरह भोगोंको भी निरन्तर नहीं चाहता है । गोस्वामीजीने दृष्टान्त
देनेमें ध्यान रखा कि साथमें ‘नहीं’ न आ जाय कहीं । कामी
और लोभीको रूप और दाम प्यारे तो लगते हैं, पर प्रियातामें कभी-कभी अन्तर भी पड़
जाता है । हमारे रघुनाथजीके रूप और नामकी प्रियतामें कहीं अन्तर नहीं पड़ जाय ।
—‘मानसमें
नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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