।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७५ शनिवार
विजया एकादशी-व्रत (सबका)
अहंकार तथा उसकी निवृति
        


जब मनुष्यमें भोग भोगने और संग्रह करनेकी प्रवृति अधिक हो जाती है, तब उसमें स्वार्थ और अभिमान आ जाते हैं, जो कि आसुरी सम्पत्ति है । स्वार्थ और अभिमान आनेसे उसका अहंकार आसुरी सम्पत्तिवाला हो जाता है – ‘अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः’ (गीता १६/१८); ‘दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः’ (गीता १७/५) । आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार भयंकर नरकोंमें ले जाता है – ‘पतन्ति नरकेऽशुचौ’ (गीता १६/१६)

अगर ऐसा मानें कि ज्ञान (मुक्ति) होनेपर आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार ही मिटता है, तादात्म्यरूप अहंकार नहीं मिटता तो यह मान्यता ठीक नहीं है । कारण कि आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार मिटनेसे नरकोंसे तो रक्षा होती है, पर मुक्ति नहीं होती । मुक्ति तो तादात्म्यरूप अहंकार मिटनेसे ही होती है । आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार तो तादात्म्यरूप अहंकारका ही स्थूल रूप है, जो जीवमात्रमें रहता है । इसी तादात्म्यरूप अहंकारको लक्ष्य करके भगवान् अर्जुनसे कहते हैं – ‘अथ चेत्त्वम् अहंकारात् न् श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ (गीता १८/५८); ‘यदहङ्कारमाश्रित्य न् योत्स्य इति मन्यसे’ (गीता १८/५९) ।


अहंकारकी उत्त्पत्ति अविद्यासे होती है – ‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषा¨¨¨¨¨¨  ̓ (योगदर्शन २/३-४)ज्ञान होने पर अविद्याका नाश हो जाता है । जब अविद्या नहीं रहेगी, तो फिर अविद्यासे होनेवाला अहंकार कैसे रहेगा ? जिस ज्ञानसे अविद्या न मिटे, वह ज्ञान कैसा ? वह तो सीखा हुआ ज्ञान है, अनुभव किया हुआ ज्ञान नहीं । अगर तादात्म्यरूप अहंकार नहीं मिटेगा तो जैसे बीजसे वृक्ष पैदा हो जाता है, ऐसे ही प्राकृत पदार्थ, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति आदिका संग पाकर वह अहंकार भी आसुरी सम्पत्तिवाला हो जायेगा ।

गीतामें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन हुआ है, वहाँ भगवान् ने अहंकारसे रहित होनेकी बात कही है – ‘अनहङ्‌कार एव च’ (गीता १३/८)जब साधकमें भी यह अहंकार दूर हो सकता है तो फिर सिद्ध होनेपर यह कैसे रहेगा ? सिद्ध होनेपर तो तादात्म्यरूप अहंकारका सर्वथा नाश हो जाता है । भगवान् ने कर्मयोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः’ (गीता २/७१) पदोंसे, ज्ञानयोगमें ‘अहंकार¨¨¨विमुच्य निर्ममः’ (गीता १८/५३) पदोंसे और भक्तियोगमें ‘निर्ममो निरहंकारः’ (गीता १२/१३) पदोंसे तादात्म्यरूप अहंकारके नाशकी ही बात कही है ।


२. पारमार्थिक अहंकार

जब मनुष्यका उद्देश्य केवल सत्-तत्वको प्राप्त करनेका हो जाता है, तब वह उसकी प्राप्तिके लिये ‘मैं साधक हूँ’ – इस पारमार्थिक अहंकारको लेकर साधन करता है । ‘मैं साधक हूँ’ – यह अहंकार मुक्त्त करनेवाला है ।[1] अहम् में बैठी हुई बात निरन्तर रहती है । अतः ‘मैं साधक हूँ’ – ऐसा अहंकार दृढ़ होनेपर साधकके द्वारा निरन्तर साधन होता है ।

साधन करते समय तो वह साधक रहता ही है, सांसारिक कार्य करते समय भी वह साधक ही रहता है । इसीलिए वह जो भी सांसारिक कार्य करता है, वह अपने साधनके अनुरूप ही करता है । जैसे लोभी आदमी ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जिससे धनका नाश हो, ऐसे ही वह साधक अपने साधनसे विरुद्ध कोई कार्य नहीं करता ।

साधककी साधनसे और साधनकी साध्यसे एकता होती है । इसीलिए जबतक साधक साधनमें तल्लीन नहीं होता, तबतक साध्य (परमात्मतत्व) की प्राप्ति नहीं होती । जबतक साधकमें अहंकार रहता है, तबतक वह साधनमें तल्लीन नहीं होता । अहंकार मिटनेपर साधक साधनमें तल्लीन हो जाता है अर्थात् साधक नहीं रहता, प्रत्युत साधनमात्र रह जाता है । साधनमात्र रहते ही साधन साध्यमें परिणत हो जाता है अर्थात् साध्यकी प्राप्ति हो जाति है ।



[1] ‘अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ʼ

दासोऽहं कौशलेन्द्रस्य’ – यह पारमार्थिक अहंकार है । वास्तवमें यह अहंकार नहीं है, प्रत्युत भगवान् पर दृढ़ विश्वास है और तादात्म्यरूप अहंकार का नाश करके मुक्ति देनेवाला है ।