सम्पूर्ण
सृष्टि त्रिगुणात्मक है । श्रीमद्भागवतमें अहंकारको भी तीन प्रकार का बताया गया है–सात्त्विक, राजस
और तामस । अतः सत्त्वगुण,
रजोगुण और तमोगुणके जितने भी भेद सृष्टिमें पाये जाते हैं,
वे सब अहंकारमें ही हैं । जबतक व्यष्टि
अहंकार रहता है, तबतक साधकोंमें और उनके साधनोंमें भेद रहता है ।
परन्तु तत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भेद नहीं रहता । जबतक दार्शनिकोंमें और दर्शनशास्त्रका अध्ययन करनेवालोंमें
किञ्चित् भी व्यष्टि अहंकार रहता है, तबतक दर्शनोंका भेद रहता है ।[1] अहम्के
कारण ही दार्शिनिकोंमें परस्पर विरोध और अपने-अपने मतका आग्रह (पक्षपात) रहता है, जिससे वे अपने मतका
मण्डन और दूसरेके मतका खण्डन करते हैं । तात्पर्य है कि सूक्ष्म अहम् (आंशिक व्यक्तित्व)
रहनेसे ही मतभेद होता है, तत्त्वमें मतभेद नहीं है । अहम्का अत्यन्त अभाव होनेपर भेद नहीं रहता,
प्रत्युत तत्त्व रहता है । तत्त्वमें
अहम् नहीं है और अहम्में तत्त्व नहीं है । अहम्से पृथक्ता पैदा होती है । जहाँ पृथक्ता
है, वहाँ बोध कहाँ और जहाँ बोध है, वहाँ
पृथक्ता कहाँ ?
‘मैं हूँ’–इसमें ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । जड़की मुख्यतासे संसारकी इच्छा और चेतनकी मुख्यतासे
परमात्माकी इच्छा उत्पन्न होती है । तात्पर्य है कि संसारकी इच्छामें ‘मैं’ की प्रधानता और परमात्माकी इच्छामें ‘हूँ’ की प्रधानता रहती है । ‘मैं’ (जड़) की प्रधानता होनेसे जीव संसारी होता है और ‘हूँ’ (चेतन) की प्रधानता होनेसे जीव साधक होता है । अतः मुख्यरूपसे तादात्म्यरूप अहंकारके दो भेद हैं–१. लौकिक अहंकार, जैसे–‘मैं संसारी हूँ’ और २. पारमार्थिक अहंकार;
जैसे–‘मैं साधक हूँ’ ।
१.
लौकिक अहंकार
जब
मनुष्यका उद्देश्य असत् भोग और संग्रहको प्राप्त करनेका हो जाता है, तब
उसमें ‘मैं संसारी हूँ’–यह लौलिक अहंकार रहता है । ऐसा अहंकार दृढ़ होनेपर
मनुष्य निरन्तर संसारी रहता है । सांसारिक कार्य करते समय तो वह संसारी रहता ही है, साधन
करते समय भी वह संसारी ही रहता है । इसीलिए वह जो भी साधन करता है, वह कामनाको लेकर (कामनापूर्तिके लिये) ही करता है और वह साधन
उसमें साधकपनका अभिमान बढ़ानेवाला होता है । अभिमान अहंकारका
ही स्थूलरूप है ।
[1]न्याय, वैशेषिक,
योग, सांख्य,
पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा–ये छः आस्तिक (ईश्वरकी सत्ता माननेवाले) दर्शन हैं । न्यायदर्शन
और वैशेषिक दर्शनमें भौतिकताकी प्रधानता है । योगदर्शन और सांख्यदर्शनमें भौतिक और
अध्यात्मिक दोनोंका ही वर्णन है । पूर्वमीमांसामें स्वर्गादिकी प्राप्ति और उत्तरमीमांसा
(वेदान्तदर्शन) में ब्रह्मकी प्राप्ति मुख्य है । इन दोनों दर्शनोंको ‘मीमांसा’ कहनेका तात्पर्य
है कि इनमे अपने विचार (दर्शन अर्थात् अनुभव) की मुख्यता नहीं है,
प्रत्युत वैदिक मन्त्रोंपर विचारकी मुख्यता है । इन दोनोंमें
वेदान्त-दर्शनके कई भेद हैं; जैसे–अद्वैत, द्वैत,
विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत,
अचिन्त्यभेदाभेद आदि ।
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