।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
  गीतामें भक्ति और उसके अधिकारी
        

एक  बानि   करुनानिधान  की ।
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

यहाँ ‘गति न आन की’ इन पदोंके द्वारा अनन्यभा‌क्‌की ही व्याख्या हुई । दूसरेका आश्रय छोड़कर भगवान्‌का भजन करनेवालेको ही लक्ष्य किया गया है । ऐसे पुरुषको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि–

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति  सय  बार हिए की ॥

उसने अब एकमात्र यही निश्चय कर लिया है कि ‘मैं जो कुछ और जैसा भी हूँ, आपका हूँ ।’ वह समझता है कि मेरा उद्धार मेरे साधन और भजनके बलसे नहीं हो सकता; अपितु अशरण-शरण दीनबन्धु भगवान्‌की अहैतुकी कृपासे ही सम्भव है । मुझ-जैसा पामर एक साधारण जीव भगवान्‌के अनुकूल साधन क्या कर सकता है । यत्किंचित् भगवान्‌के अनुकूल जो साधन बन जाता है वह भी भगवान्‌की कृपाका ही फल है । जो कुछ बनेगा वह प्रभुकी ही दयासे । ऐसा उसका अटल निश्चय है । इसीसे तो एक भक्त कहता है–

भगत बछल ब्रत समुझिके रज्जब दीन्हों रोय ।
पतिताँ पावन जब सुने, रह्यो न चीतो सोय ॥

इसी कारण भगवान्‌ कहते हैं–वह बहुत शीघ्र धर्मात्मा बन जाता है । तात्पर्य यह कि जब वह भगवान्‌की ओर ही चलनेका दृढ़ निश्चय कर लेता है, तब उसके आचरण और भाव बहुत जल्दी सुधर जाते हैं । जब उसके ध्येय एकमात्र परमात्मा हो गये, तब वह दुर्गुणका आश्रय कैसे ले सकता है, भगवत्प्रतिकूल आचरण कैसे कर सकता है । ज्यों-ज्यों भगवान्‌के अनन्य आश्रित होता जाता है, त्यों-त्यों उसमें सद्गुण-सदाचारकी स्वाभाविक वृद्धि होती जाती है । जब सब प्रकारसे वह प्रभुके आश्रित हो जाता है, तब उसी क्षण धर्मात्मा बन जाता है । केवल धर्मात्मा ही नहीं होता, उसे अविचल शान्ति भी प्राप्त हो जाती है । अर्थात् जिस सुख-शान्तिमें क्षय आदि विकार और दोष नहीं आते, उसी शान्तिको वह प्राप्त हो जाता है ।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय  प्रतिजानीहि  न  मे  भक्त  प्रणश्यति ॥
                                                                   (गीता ९/३१)

‘इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली  परम शान्तिको प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तु निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ।’

निरन्तर रहनेवाली शान्ति क्या है ? जिसे गीतामें परमपद, ब्रह्मनिर्वाण, निर्वाण, परम शान्ति, आत्यन्तिक सुख आदि नामोंमें कहा गया है, उसीको ‘शश्वच्छान्ति’ कहते हैं । यही सब साधनोंका अन्तिम फल है । इसे ही शास्त्रकारोंने मुक्ति कहा है । यह सर्वोपरि स्थिति है । इसीके लिये भगवान्‌ कहते हैं–

यं लब्ध्वा चापरं  लाभं  मन्यते  नाधिकं  ततः ।
यस्मिन स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                                                  (गीता ६/२२)