वास्तविक गुरु वह होता है, जिसमें केवल चेलेके कल्याणकी
चिन्ता होती है । जिसके हृदयमें हमारे कल्याणकी चिन्ता ही नहीं है, वह हमारा गुरु
कैसे हुआ ? जो हृदयसे हमारा कल्याण चाहता है, वही हमारा
वास्तविक गुरु है, चाहे हम उसको गुरु मानें या न मानें और वह गुरु बने या न बने । उसमें
यह इच्छा नहीं होती कि मैं गुरु बन जाऊँ, दूसरे मेरेको गुरु मान लें, मेरे चेले बन
जायँ । जिसके मनमें धनकी इच्छा होती है, वह धनदास होता है । ऐसे ही जिसके
मनमें चेलेकी इच्छा होती है, वह चेलादास होता है । जिसके मनमें गुरु बननेकी इच्छा
है, वह दूसरेका कल्याण नहीं कर सकता । जो चेलेसे रुपये चाहता है, वह गुरु नहीं
होता, प्रत्युत पोता-चेला होता है । कारण कि चेलेके पास रुपये हैं तो उसका चेला हुआ
रुपया और रुपयेका चेला हुआ गुरु तो वह गुरु वास्तवमें पोता-चेला ही हुआ ! विचार करें, जो आपसे कुछ भी चाहता है, वह क्या आपका गुरु हो
सकता है ? नहीं हो सकता । जो आपसे कुछ भी धन चाहता है, मान-बड़ाई चाहता है, आदर
चाहता है, वह आपका चेला होता है, गुरु नहीं होता । सच्चे महात्माको दुनियाकी गरज नहीं होती, प्रत्युत
दुनियाको ही उसकी गरज होती है । जिसको किसीकी
भी गरज नहीं होती, वही वास्तविक गुरु होता है ।
कबीर जोगी जगत गुरु, तजै जगत
की आस ।
जो जग की आसा करै तो जगत गुरु वह दास ॥
जो सच्चे सन्त-महात्मा होते हैं, उनको गुरु बननेका शौक नहीं होता,
प्रत्युत दुनियाके उद्धारका शौक होता है । उनमें दुनियाके उद्धारकी सच्ची लगन होती है । मैं भी अच्छे सन्त-महात्माओंकी खोजमें रहा
हूँ और मेरेको अच्छे सन्त-महात्मा मिले भी हैं । परन्तु उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा
कि तुम चेला बन जाओ तो कल्याण हो जायगा । जिनको गुरु
बननेका शौक है, वही ऐसा प्रचार करते हैं कि गुरु बनाना बहुत जरूरी है, बिना गुरुके
मुक्ति नहीं होती, आदि-आदि ।
कोई वर्तमान
मनुष्य ही गुरु होना चाहिये‒ऐसा कोई विधान नहीं है । श्रीशुकदेवजी महाराज हजारों
वर्ष पहले हुए थे, पर उन्होंने चरणदासजी महाराजको दीक्षा दी ! सच्चे शिष्यको गुरु अपने-आप दीक्षा देता है । कारण कि चेला सच्चा होता है तो उसके लिये गुरुको ढूँढ़नेकी आवश्यकता नहीं
होती, प्रत्युत गुरु अपने-आप मिलता है । सच्ची लगनवालेको सच्चा महात्मा मिल जाता है‒
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू ।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥
(मानस,
बालकाण्ड २५९/३)
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