जो संसारका सुख भोगता है, वह चाहे अपने ही धन,
विद्या, बल तथा न्यायपूर्वक शास्त्रविहित भोग आदिसे सुख भोगता हो तो भी दूसरेको
दुःख देता है । आप किसी
वस्तुसे सुख लेते हो, तो वह वस्तु किसी-न-किसीकी गयी है, तभी आपको सुख मिला है ।
कारण यह है कि संसारकी सब अनुकूल वस्तुएँ सीमित हैं । एक
सन्त-महात्मासे भी दूसरेको दुःख मिल सकता है, पर वह और तरहका है । उसका पारमार्थिक
सुख किसीको दुःख नहीं देता, पर दूसरे अपने स्वभावसे उसे सुखी देखकर दुःखी हो जाते
हैं । अतः वह दुःख दूसरेके स्वभावके कारण है । सन्त-महात्मा उस दुःखमें
कारण नहीं बनते । जो अपनी बुद्धिमानी या चतुराईसे
सांसारिक पदार्थोंको प्राप्त करके उनसे सुख भोगता है, वही दूसरोंको दुःख देता है ।
पारमार्थिक सुखसे सुखी व्यक्ति दूसरेको दुःख नहीं देता, पर दूसरे दुःख ले
लेते हैं, जैसे शिवलिंग पूजनके लिये होता है, पर उससे भी कोई अपना सिर फोड़े तो वह
क्या करे ? इसलिये सांसारिक सुखसे सुखी व्यक्ति ही दुःख
देता है ।
यह बड़ी गहरी बात है कि बिना दुःख दिये सुखका भोग
होता ही नहीं । वह सुखभोग किसी-न-किसीको पराधीन करता ही है । सुख भोगनेसे सुखभोगकी
सामग्रीका नाश और अपना पतन होता है । इससे कोई बच नहीं सकता । इसलिये जिस-किसी
तरहसे सुख लेना नरकोंका रास्ता है ।
मूल बात जो मैंने पहले बतायी, उसे ध्यानमें रखें कि संसारका सुख सीमित है एवं उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है । जो
वस्तु सीमित है, उसे सभी पाना चाहते हैं तो उस वस्तुके हिस्से ही तो होंगे ।
जो पारमार्थिक सुख है वह असीम है, अतः उसके हिस्से नहीं होते । वह सबको ही असीम
मिलता है । जैसे किसी माँके दस बालक हों तो माँका उन बालकोंमें हिस्सा नहीं होता
कि माँका इतना हिस्सा तो मेरा है, बाकी हिस्सा दूसरोंका है, मेरा नहीं । माँ तो सबकी पूरी-की-पूरी ही है । ऐसे ही भगवान् पूरे-के-पूरे
अपने हैं ।
कामना सर्वथा मिट जाय तो अभिमान मिट जायगा और
अभिमान सर्वथा मिट जाय तो कामना भी मिट जायगी । इनके मिटनेपर जड़ता (संसार) से
सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और सारे दुःख, दोष मिट जायँ ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒
‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
|