अभिमानको कैसे छोड़ा जाय ? इसपर विवेचन करनेपर विचार आया कि मनुष्य दूसरोंके साथ अपना मिलान न करे, तो अभिमानसे छूट सकता
है । जहाँ कहीं दूसरेको साथमें मिलाकर देखा कि अभिमान पैदा हुआ । अभिमान
सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है । एक अभिमान और एक कामना‒ये दो
दोष ऐसे हैं कि इनके होनेपर फिर पीछे कोई दोष बाकी नहीं रहता । न कोई दोष
बाकी रहता है, न कोई पाप बाकी रहता है और न संसारभरकी कोई पतनकारक चीज ही बाकी
रहती है । मैंने
खूब विचार करके देखा है कि समस्त दुःख, सन्ताप, जलन, आफत, रोना, कराहना, नरक,
कैदखाना आदि जो कुछ है, सब अभिमान और कामना‒इन दोसे ही होते हैं ।
जबतक अभिमान रहता है, तबतक स्वभाव बिगड़ा हुआ रहता है,
सुधरता नहीं है । तो क्या करें ? कि केवल अपनी तरफ देखें, दूसरोंकी तरफ देखें ही
नहीं । दूसरा अच्छा करता है या मन्दा करता है, उसपर दृष्टि डाले ही नहीं । दृष्टि
डालोगे तो अभिमान पैदा हो ही जायगा ।
तेरे
भावे कछु करो, भलो बुरो संसार ।
‘नारायण’
तू बैठिके, अपनो भवन बुहार ॥
जो अपनेको गुणवान् मानता है, वह दूसरोंको दुःख
देता है । ध्यान दें ।
वह ऐसे कि जिसके पास वे गुण नहीं हैं, वे उसे चुभेंगे । और आप गुणवान् नहीं हैं,
दोषी हैं तो दूसरेको दोष चुभेंगे, और अपनेको तो चुभेंगे ही । तो दूसरोंको दुःखसे
बचाना और स्वयं अभिमानसे बचना‒यह एक ही बात है । किसी भी बातका अभिमान होगा तो
उससे दूसरेको दुःख होगा ही । एक पारमार्थिक सुख ही ऐसा
है कि उसमें मस्त रहनेसे अपनेको भी सुख होगा और दूसरोंको भी सुख होगा । नहीं तो संसारका
कोई सुख ऐसा नहीं, जो किसीका दुःख न हो । इसलिये सुखका भोगी दूसरोंको दुःख देनेवाला, दूसरोंका हिंसक
ही होता है ।
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