।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं. २०७६ रविवार
          अचिन्त्यका ध्यान
        

तं विद्याद्  दुखसंयोगवियोगं   योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
                                               (गीता ६/२३)

दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित जो योग है उसको जानना चाहिये और न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक उसको करना चाहिये । फिर प्रश्न उठता है कि उस योगका अनुष्ठान कैसे करें ? तो उसके लिये उपाय बताया‒

संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
                                                   (गीता ६/२४)

संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका अशेषतः पूर्णतया त्याग कर दें । और‒

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
                                                (गीता ६/२४)

इन्द्रिय-समुदायको मनसे संयमित करें । अर्थात् केवल बाहरसे इन्द्रियोंका संयम न हो, अपितु मनसे भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि विषयोंका चिन्तन न हो । ऐसे एकान्तमें बैठकर‒

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
                                              (गीता ६/२५)

धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे संसारसे उपराम हो जायँ । धीरे-धीरेका अर्थ है कि जल्दीबाजी न करें । उपरति न हो तो उकतावें नहीं, धैर्य रखें । और बुद्धिका एक ही ध्येय हो कि हमें तो परमात्माको प्राप्त करना है और कुछ प्राप्त नहीं करना है । ऐसे होकर‒

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
                                                     (गीता ६/२५)
        
मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे ।

वह परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है । ऐसा परिपूर्ण है कि‒

जासु सत्यता ते   जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥

इस परमात्माके सत्-स्वरूपके व्यापक रहनेके कारण यह असत् जड़ संसार सच्‍चा दिखायी देता है । जिस प्रकार स्फटिक पत्थरको लाल रंगके कपड़ेपर रखनेसे लाल और काले रंगके कपड़ेपर रखनेसे काला दिखायी देता है । यद्यपि उसमें स्वयंमें वह रंग नहीं होता । उसी प्रकार यह अनित्य, क्षणभंगुर संसार सत्य (परमात्मा) की सत्यतासे दीखता है । संसार वास्तवमें है नहीं । प्रतिक्षण जा रहा है, बदल रहा है, नष्ट हो रहा है । परन्तु परमात्मतत्त्व सब समय, सब जगह परिपूर्ण है । और इस परमात्मतत्त्वमें इतनी ताकत है कि यह ‘नहीं’ को भी ‘है’ दिखाता है । उदाहरणके लिये बूँदीके लड्डूको हम मीठा कहते हैं । परन्तु बूँदी खुद मीठी नहीं होती । बूँदी बेसनकी होती है । बिलकुल फीकी । परन्तु चीनीकी चासनीके कारण मीठी दीखती है । तो उसमें मिठास बेसनका नहीं, चीनीका है । परमात्मा बाहर, भीतर, ऊपर, नीचे‒दसों दिशाओंमें परिपूर्ण है । जैसे समुद्रके भीतर गोता लगानेवालेके गोता लगाते समय ऊपर, नीचे, बराबरमें चारों ओर जल-ही-जल रहता है परिपूर्ण, इसी प्रकार हमारे सब ओर परमात्मा परिपूर्ण हैं । अतः मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवाय अन्य कुछ भी चिन्तन न करें । अब प्रश्न उठता है कि चिन्तन करें तो नहीं, परन्तु चिन्तन आ जाय, तो क्या करें ? तो इसका उत्तर है कि जैसे समुद्रमें लहर उठती है और उठकर स्वयं ही लीन हो जाती है, ऐसे ही चिन्तन या संकल्प उठकर स्वयं ही लीन हो जायगा । उसके साथ तादात्म्य न करें । उसका न तो अनुमोदन करें और न विरोध करें । ‘न किंचिदपि चिन्तयेत’ किंचिन्मात्र भी चिन्तन न करें । संसारकी कोई बात याद आ गयी तो उसे न तो अच्छा मानें न बुरा मानें और न ऐसा मानें कि मेरेमें संकल्प आ गया । संकल्पका अनुमोदन कर दोगे तो भी सम्बन्ध जुड़ जायगा और उससे द्वेष करोगे कि हमारेमें संकल्प हो गया, तो भी सम्बन्ध जुड़ जायगा । अतः रागद्वेषके कारण संकल्पसे सम्बन्ध नहीं जोड़ें । एकदम तटस्थ रहें, उदासीन रहें । और जो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं, केवल उसको देखें, उसका ही चिन्तन करें । यह है अचिन्त्यका ध्यान ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे