तं विद्याद् दुखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
(गीता
६/२३)
दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित जो योग है उसको जानना चाहिये और न उकताये हुए
चित्तसे निश्चयपूर्वक उसको करना चाहिये । फिर प्रश्न उठता है कि उस योगका अनुष्ठान
कैसे करें ? तो उसके लिये उपाय बताया‒
संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
(गीता ६/२४)
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका अशेषतः
पूर्णतया त्याग कर दें । और‒
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
(गीता ६/२४)
इन्द्रिय-समुदायको मनसे संयमित करें । अर्थात् केवल बाहरसे
इन्द्रियोंका संयम न हो, अपितु मनसे भी शब्द,
स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि विषयोंका चिन्तन न हो । ऐसे एकान्तमें बैठकर‒
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
(गीता
६/२५)
धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे संसारसे उपराम हो जायँ । धीरे-धीरेका अर्थ है कि जल्दीबाजी न करें । उपरति न हो तो उकतावें
नहीं, धैर्य रखें । और बुद्धिका एक ही ध्येय हो कि हमें तो परमात्माको प्राप्त
करना है और कुछ प्राप्त नहीं करना है । ऐसे होकर‒
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
(गीता ६/२५)
मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी
चिन्तन न करे ।
वह परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है । ऐसा परिपूर्ण है कि‒
जासु सत्यता ते जड़ माया
।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
इस परमात्माके सत्-स्वरूपके व्यापक रहनेके कारण यह असत् जड़
संसार सच्चा दिखायी देता है । जिस प्रकार स्फटिक पत्थरको लाल रंगके कपड़ेपर रखनेसे लाल और
काले रंगके कपड़ेपर रखनेसे काला दिखायी देता है । यद्यपि उसमें स्वयंमें वह रंग
नहीं होता । उसी प्रकार यह अनित्य, क्षणभंगुर संसार सत्य (परमात्मा) की सत्यतासे
दीखता है । संसार वास्तवमें है नहीं । प्रतिक्षण जा रहा है, बदल रहा है, नष्ट हो
रहा है । परन्तु परमात्मतत्त्व सब समय, सब जगह परिपूर्ण है । और इस परमात्मतत्त्वमें इतनी ताकत है कि यह ‘नहीं’ को भी ‘है’ दिखाता
है । उदाहरणके लिये बूँदीके लड्डूको हम मीठा कहते हैं । परन्तु बूँदी खुद
मीठी नहीं होती । बूँदी बेसनकी होती है । बिलकुल फीकी । परन्तु चीनीकी चासनीके
कारण मीठी दीखती है । तो उसमें मिठास बेसनका नहीं, चीनीका है । परमात्मा बाहर, भीतर, ऊपर, नीचे‒दसों दिशाओंमें परिपूर्ण है ।
जैसे समुद्रके भीतर गोता लगानेवालेके गोता लगाते समय ऊपर, नीचे, बराबरमें चारों ओर
जल-ही-जल रहता है परिपूर्ण, इसी प्रकार हमारे सब ओर
परमात्मा परिपूर्ण हैं । अतः मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवाय अन्य
कुछ भी चिन्तन न करें । अब प्रश्न उठता है कि चिन्तन करें तो नहीं, परन्तु
चिन्तन आ जाय, तो क्या करें ? तो इसका उत्तर है कि जैसे
समुद्रमें लहर उठती है और उठकर स्वयं ही लीन हो जाती है, ऐसे ही चिन्तन या संकल्प
उठकर स्वयं ही लीन हो जायगा । उसके साथ तादात्म्य न करें । उसका न तो अनुमोदन करें
और न विरोध करें । ‘न किंचिदपि चिन्तयेत’
किंचिन्मात्र भी चिन्तन न करें । संसारकी कोई बात याद आ गयी तो उसे न तो अच्छा
मानें न बुरा मानें और न ऐसा मानें कि मेरेमें संकल्प आ गया । संकल्पका अनुमोदन कर
दोगे तो भी सम्बन्ध जुड़ जायगा और उससे द्वेष करोगे कि हमारेमें संकल्प हो गया, तो
भी सम्बन्ध जुड़ जायगा । अतः रागद्वेषके कारण संकल्पसे सम्बन्ध नहीं जोड़ें । एकदम तटस्थ रहें, उदासीन रहें । और जो परमात्मा सब जगह
परिपूर्ण हैं, केवल उसको देखें, उसका ही चिन्तन करें । यह है अचिन्त्यका ध्यान ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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