निषिद्ध कर्मोंको
करते हुए कोई व्यक्ति साधक नहीं बन सकता ।
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साधक चाहे तो असत्से विमुख हो जाय, चाहे सत्के सम्मुख हो
जाय । दोनोंमें कोई एक काम तो करना ही पड़ेगा, तभी आफत मिटेगी ।
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साधकके लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही
करनी है’‒इस निश्चयकी तथा इसपर दृढ़ अटल रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।
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साधकको चाहिये कि वह अपनेको कभी भोगी या संसारी व्यक्ति न
समझें । उसमें सदा यह जागृति रहनी चाहिये कि ‘मैं साधक हूँ’ ।
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जड़तासे जितना सम्बन्ध-विच्छेद होता जाता है, उतनी ही
साधकमें विलक्षणता आती जाती है ।
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साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर
सावधान रहता है ।
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साधकको अपनी स्थिति स्वाभाविक रूपसे परमात्मामें ही माननी
चाहिये, जो वास्तवमें है । संसारमें अपनी स्थिति माननेवाला साधक साधनासे गिर जाता
है ।
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साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा किसीको लाभ
नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या हुआ ?
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साधकमें साधन और सिद्धिके विषयमें चिन्ता तो नहीं होनी
चाहिये, पर भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता अवश्य
होनी चाहिये । कारण कि चिन्ता भगवान्से दूर करनेवाली है और व्याकुलता भगवान्की
प्राप्ति करानेवाली है ।
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जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको सन्तोष नहीं
करना चाहिये ।
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आपसमें मतभेद होना और अपने मतके अनुसार साधन करके जीवन बनाना
दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका मत बुरा लगना, उनके मतका खण्डन करना, उनसे घृणा
करना ही दोष है ।
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जबतक साधकको अपनी स्थितिपर असन्तोष नहीं होता, तबतक उसकी
उन्नति नहीं होती ।
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साधकको केवल इतनी सावधानी रखनी है कि उसको
जो चीज नाशवान् दीखे, उसके मोहमें न फँसे, उसको महत्त्व न दे । नाशवान् चीजको
काममें ले, पर उसकी दासता स्वीकार न करे ।
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साधकको मतवादी न बनकर तत्त्ववादी बनना चाहिये ।
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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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