मनुष्य प्रत्येक
परिस्थितिमें अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है । कर्तव्यका यथार्थ स्वरूप है ‒ सेवा
अर्थात् संसारसे मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको संसारके हितमें लगाना ।
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अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक
प्रसन्नता रहती है । इसके विपरीत अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यके
चित्तमें स्वाभाविक खिन्नता रहती है ।
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साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है, जब वह
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’ अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर, केवल संसारकी और
संसारके लिये ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण
करनेमें लग जाय ।
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वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष
देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं,
पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते ।
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कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । छोटे-से-छोटा
और बड़े-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है ।
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जिससे दूसरोंका हित होता है, वही
कर्तव्य होता है । जिससे किसीका भी अहित होता है, वह अकर्तव्य होता है ।
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राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या
कठिनाई प्रतीत होती है ।
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जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’
है । कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और तमोगुण नरक है‒
‘नरकस्तमउन्नाहः’ (श्रीमद्भागवत ११/१९/४३) ।
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अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्’ और दूसरोंके हितके
लिये किये गये कर्म ‘सत्’ होते हैं । असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और
सत्-कर्मका परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है ।
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अच्छे-से-अच्छा कार्य करो, पर संसारको स्थायी मानकर मत करो
।
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जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन
कर सकता है ।
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दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही
अकर्तव्य है ।
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अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी
उत्पत्ति होती है ।
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अपने कर्तव्य (धर्म) का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता
है‒ ‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३/१६/१) । यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने
अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया ।
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अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है । परन्तु कामना और
ममता होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते ।
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चारों वर्णों और आश्रमोंमें श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जो
अपने कर्तव्यका पालन करता है । जो कर्तव्यच्युत होता है, वह छोटा हो जाता है ।
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संसारके सभी सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही
हैं, न कि अधिकार जमानेके लिये । सुख देनेके लिये हैं, न कि सुख लेनेके लिये ।
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एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना
भी अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा । परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो
शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उल्टे अज्ञान बढ़ेगा कि हम जानते
हैं !
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–‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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