साधककी समझमें चाहे कुछ न आता हो, उसको भगवान्की शरण लेकर
भगवन्नाम-जप तो आरम्भ कर ही देना चाहिये ।
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भगवन्नाम जप और कीर्तन ‒ दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार
करनेवाले हैं ।
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नामजपमें प्रगति होनेकी पहचान यह है कि नामजप छूटे नहीं ।
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नामजपमें रुचि नामजप करनेसे ही होती है ।
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नामजप अभ्यास नहीं है, प्रत्युत पुकार है । अभ्यासमें शरीर-इन्द्रियाँ-मनकी
और पुकारमें स्वयंकी प्रधानता रहती है ।
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नामजप सभी साधनोंका पोषक है ।
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भगवन्नाम सबके लिये खुला है और जीभ अपने मुखमें हैं, फिर
नरकोंमें क्यों जाते हैं‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है !
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भगवान्का होकर नाम लेनेका जो माहात्मय है, वह केवल नाम
लेनेका नहीं है । कारण कि नामजपमें नामी (भगवान्)
का प्रेम मुख्य है, उच्चारण (क्रिया) मुख्य नहीं है ।
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संख्या (क्रिया) की तरफ वृत्ति रहनेसे निर्जीव जप होता है
और भगवान्की तरफ वृत्ति रहनेसे सजीव जप होता है । इसलिए जप और कीर्तनमें क्रियाकी
मुख्यता न होकर प्रेमभावकी मुख्यता होनी चाहिये कि हम अपने प्यारेका नाम लेते हैं
!
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भगवान्का कौन-सा नाम और रूप बढ़िया है‒यह परीक्षा न करके
साधकको अपनी परीक्षा करनी चाहिये कि मुझे कौन-सा नाम और रूप अधिक प्रिय है ।
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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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